Monday, April 30, 2018

बुद्ध हो जाओ

बुद्ध  जयंती पर विशेष

जब भौतिकता में रमनेवाला मन,
चिर शांति में खोना चाहे,
अंतस का कोलाहल जब,
अचलता सा होना चाहे,
लालसाओं से भरा यह मन जब,
सब भूलकर सोना चाहे..,

त्यागकर सब मोहपाश
तुम प्रबुद्ध हो जाओ,
जब घिर जाओ भ्रम तमसो से,
तो अंतर्मन से बुद्ध हो जाओ...

दुनिया के मयाजालों में,
भौतिकता के जंजालों में,
सामाजिक सारे बवालों में,
अंतर्मन तक कोलाहल भर जाए,
क्षणिक प्रतिक्रियाओं से भी,
जब कोई मन क्षिप्त कर जाए,

त्यागकर सब मोहपाश
तुम प्रबुद्ध हो जाओ,
जब घिर जाओ भ्रम तमसों से,
तो अंतर्मन से बुद्ध हो जाओ...

जुटा के सारे सुख संसाधन,
कर न्यौछावर सब प्रेमधन
त्याग,समर्पण कर्तव्यनिष्ठता
देकर भी मन निराशा से भर जाए,
मन चाहे नईं कोंपलें उगाना अंतर्मन में,
करना हो नवनिर्मित कुछ जीवन मे,

त्यागकर सब मोहपाश
तुम प्रबुद्ध हो जाओ,
जब घिर जाओ भ्रम तमसों से,
तो अंतर्मन से बुद्ध हो जाओ....

Saturday, April 28, 2018

मेरी बिटिया

हर रोज महसूस करती हूं आज आप सबको अपने एहसास के आंगन में एक सैर कराना चाहती हूँ, बतायेगा कैसी लगी ये ठंडी हवा...
कामना है,इतनी सी
मेरी बिटिया भी हो ऐसी
रोज सुबह मेरा रसोईघर में जाना
और मेरी नन्ही बेटियों जैसी गौरैयों का चहचहाना
मानो पूरी रात की आपबीती सुना रही हो,
या आगामी दिनचर्या बता रही हो,
ऐसा कर्मठ आत्मस्वभिमानी प्रकृति,
मैं भी प्रेरित हो उठती हूँ,
चोंच में एक -एक तिनका बटोरना,
मेरे हाथ बंटाने पर मुझ पर बरस जाना,
जैसे मेरी नन्ही गुड़िया,दूर कर दे अपने खिलौनों से,
माँ आपको समझ नही आएगी मेरी दुनिया,
गर्म चावल और पानी की कटोरी के लिए
घर को सर पे उठा लेना,
जरा देर हुई तो घूम कर
मेरे कमरे तक हो आना,
और मेरे सामने तो बड़ी शर्म आती है,
नन्ही लाड़लियों को,
छुप जाऊँ तो उछल उछल के दाने खाना,
मैं जरा कोशिश जो करूँ
उनका नीड़ सजा दूँ,
रूठ के अपने नीड़ का जगह बदल लेना,
बिल्कुल जैसे नन्ही गुड़िया का
अपने  घरौंंदों में मेरी कोई हिस्सेदारी न देना,
तुम अपने चीं- चीं में कहती हो,
और मैं अपनी हिंदी में सुनती हूँ,
तुम्हारी और मेरी एक ही भाषा है
प्रेम और सिर्फ प्रेम,
काश ये दुनिया और उसके लोग भी
ऐसे ही हमारी तरह अलग जुबाँ के होते ,
अपनी अपनी भाषा कहते और सिर्फ प्रेम समझते,
स्वार्थ में दूसरों की क्षति करने की जगह
खुद कर्मठ हो जाते,
हो जाता जग ये तुम्हारे चहचाहटों
से सुकून भरा,
धन्यवाद मेरी लाड़लियों जो
इतने प्रेम से मेरा जीवन रूपी गोद भरा..
        सुप्रिया'"रानू"

Friday, April 27, 2018

मैं : विधुर

पहली  बार थोड़ा व्यक्तिगत लिखा है,बस कभी कभी शब्द रोक न पाते कुछ भावनाओं को, अपने पिता के मन: व्यथा को शब्दों में व्यक्त करने की कोशिश की है जो उन्होंने कभी कहा भी नही

मेरे सुख- दुख,मुस्कान-आँसू,
बाँटती रही ताउम्र
बन के मेरी हमकदम,
सारे फूल चुने जीवन के,
काँटो से होकर बढ़ाये कदम,
देकर थाती तीन अमूल्य धन,

छोड़कर यूँ बीच मे साथ कर गयी निर्धन ...

पुरुष हूँ, अश्रु नयनों में बांधना होता है,
तुमसे कहता था ,सब
अब सब कुछ मौन में साधना होता है,
हाथ लड़खड़ाए भी तो
उसे अपने हाथों से थामना होता है
तुम्हारे साथ से था मैं सम्पन्न
छोड़कर यूँ बीच मे कर गयी निर्धन...

देखकर चाँद अक्सर याद आ जाती है तुम्हारी,
इसे चुराकर चर्च के पीछे बैठने की बात,
यूँही खामोश तुम्हारे साथ बैठकर भी
अनकहे शब्दों में भी सुन लेती थी तुम मेरी कितनी बात

मैं मेरी बेटी की तरह नही,
जो शब्दों में पिरो लूं तुम्हारी कमी
ना ही तुम्हारी तरह जो
छुपा लूं अपने नयनों के कोरों की नमी,
मैं चुप नि:शब्द
व्यथा अपने अंतर्मन में बसा लेता हूँ,
बुढ़ापे के इन दवाइयों की तरह
तुम्हारा एहसास नस नस में समा लेता हूँ,

मैं स्त्री नही जो अपने श्रृंगार का परित्याग कर
तुम्हारे न होने का शोक मना लूं
मैं तो चाहूँ भी तो बिलख कर रो नही सकता,
परिवार के साथ पास रह कर भी मैं एकात्म में जीता हूँ
मैं ही जानता हूँ यह विरह वेदना कैसे पीता हूँ,
जानता हूँ तुमसे हुन कितना दूर,
और यह अर्थ भी की मैं हूँ विधुर 

   सुप्रिया"रानू"

Wednesday, April 25, 2018

मैं नारी हूँ: मेरा अस्तित्व संलिप्त है..


मैं नारी हूँ,
अंतः मन से कभी निर्भर हो जाती हूँ,
कभी आत्म निर्भर हूँ,
मैं सृष्टी का आधा हिस्सा हूँ,
फिर भी सामाजिक व्यवस्था में,
बिना पुरुष के अधूरा किस्सा हूँ,
मेरे बिना पुरुष का अस्तित्व भी अतृप्त है,
फिर भी मैं नारी हूँ,
मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
असीम प्रेम का सागर है,मुझमे
लुटाती हूँ बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक,
कभी भाइयों के लिए,कभी पति,कभी पुत्र तो कभी पौत्र,
कभी खुद को अलग न सोच पायी,
मैं हूँ सबके लिए बस इसी बात पर जीती आयी,
अहम को भी अपना लेती हूं,
जरूरत पड़ने पर स्वाभिमान भी भूला देती हूं,
इतनी विस्तृत होकर भी सामाजिक व्यवस्था में
मेरा योगदान मेरा स्थान संक्षिप्त है..,
पुरुष का अंतर्मन भी मुझसे  ही तृप्त है,
फिर भी
मैं  नारी हूँ, मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
मैं समर्पण जानती हूँ,त्याग भी करती हूँ
पाकर प्रेम पौरुष से कुशुम सी खिलती हूँ,
प्रेम में डूब जाती हूँ,और
भावनाओं से तर होकर
स्व को भूल जाती हूँ,
प्रत्युत्तर तिरस्कार भी हो तो
प्रेम न भूलती हूँ,
स्व को जानकर भी स्व को छलती हूँ
मैं दमित नही हूँ अब न कुचलित
बस असीम प्रेम ही है मेरी दुविधा जो
मेरा अस्तित्व अभी भी है संलिप्त
मेरे बिना पुरुष का आतित्व भी अतृप्त है,
फिर भी मैं नारी हूँ मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
        सुप्रिया "रानू"

Monday, April 23, 2018

तुमने ही जना..

तुमने ही जना राम,रावण
कृष्ण, दुर्योधन,
जननी हो सृष्टि के निर्माण
में सहभागी बनी,
फिर ये कौन से हवस के पुजारी जने
जो महीने भर की जान भी न बख्शते,
तुम ही आज अपराधी बनी,

नैनो में हवस,आत्मा तक वासना लिप्त हैं,
तभी तो जान लेकर भी इनके शरीर अतृप्त हैं
इसे मनोरोग कहूँ या व्याधि बड़ी,
जो दिखता न है सामने एक कुशुम पड़ी,
ईमान को दोष दूँ समाज को दोष दूँ या उसकी जननी
को धिक्कार दूँ,
तीन  महीने की नन्ही कोमल पुष्प की माँ पूछती है,
जो दूध का बोतल तक न थाम पाती,
कहो उस बेटी को क्या हथियार दूँ।

तुमने ही जना......

सृष्टि के अस्तित्व का आधार,
नर नारी के अंतरंग प्रेम का व्यवहार,
आज एक महामारी बना,
समय से पूर्व ही यह शारीरिक भूख
जैसे छुवाछुत की बीमारी बना,
आत्मा शुद्धि हो,या सन्यास दिलाया जाए,
इस बीमारी से निजात के लिए अपराधियों
की जान लिया जाए,

तुमने ही जना.....

नियम कानून,परंपरा संस्कार क्या ऐसे
उदंड मनों को बांध पाएंगे,
सीमाओ में सीमित नारियों के संस्कार क्या
काली बनकर रक्त पीने को साध पायेंगे,
नरसंहार फांसी मृत्यु क्या यही एक रास्ता होगा,
आओ मिलकर हम नारियां
पालन दें ऐसा पुत्रो को जिसके संस्कारों का
आदर्श ही संयम का वास्ता होगा...

तुमने ही जना...

          सुप्रिया"रानू"

Friday, April 20, 2018

कदमो की आहट

नौ महीने का इंतज़ार बड़ा बेसब्र होता है,
मन की आकांक्षाएं उम्मीदों से भरता है,
संवेदन तो हर घड़ी है तुम्हारी,
पर भौतिकता में तुम्हारे साथ कि चाहत करती हूं
तुम चल भी न रही,
और मैं..
हर पल तुम्हारे कदमो की आहट सुनती हूँ..

एक अनदेखा ,अनसुना सा ख्वाब हो तुम,
मेरे सारे दबे सपने,मेरे जीवन का आफताब हो तुम,
मेरे हर प्रश्नों का जवाब हो तुम,
अपना प्रतिरूप तुम में देखने की चाहती करती हूं,
तुम चल भी न रही,
और मैं..
हर पल तुम्हारे कदमो को आहट सुनती हूँ..

मेरे पास खड़े रहने को हर पल मेरी छाया,हो तुम
निर्मोही होने के इस ढोंग में मेरी सबसे बड़ी माया हो तुम
जो कह भी न पायी आज तक
उन सारे शब्दों से बननेवाली ज़ज़्बात हो तुम
मुझसे सिंचित कोमल कुसुम सी मेरी पूरी कायनात हो तुम अपने अंतर्मन का सम्पूर्ण स्नेह तुम पर उड़ेलती हूँ,
तुम चल भी न रही,
और मैं..
हर पल तुम्हारे कदमो की आहट सुनती हूँ...

        सुप्रिया "रानू"

Friday, April 13, 2018

तुम और मैं एकल

कर  सकूं,तुम्हारे उत्तेजित उद्वेगित
चंचल,शांतिहीन मन को,
हर्षित,अटल ,अचल..

होगी मेरी उपलब्धि जब
छोड़ सारी युगल परिभाषाएँ
हो जाऊं तुम संग मैं एकल...

रख कर मेरी गोदी में सर
ले लेना गहरी सांसे ,
दे देना मेरे कर में अपने मन का सारा
कोलाहल, सारी उत्तेजना,
सारी अशांति सब अपूर्ण आसें ,
धो डालूंगी सारे पीर तुम्हारे ,
कर के मिश्री सा अपना अश्रुजल...

होगी उपलब्धि मेरी जब
छोड़ सारी युगल परिभाषाएँ
हो जाऊं तुम संग मैं एकल....

जीवन के इस सफर में,चलते चलते जब थक जाओ,
होकर निराश मन कहे यहीं कहीं रुक जाओ,
तुम भूलकर सारे बंधन,छोड़कर सारा चिन्तन,
भर लेना अपना तन मन,
कर लेना तर हृदय का कोना कोना,
बन कर निर्झर स्वच्छंद नदी
बह जाउंगी तुम्हारे समक्ष मैं कल-कल

होगी उपलब्धि मेरी जब
छोड़ सारी युगल परिभषाएँ,
हो जाऊं तुम संग मैं एकल..

तुम जाना जब ठिठक बाधाओं से,
मैं बन आउंगी जीवन मे एक हलचल,
बन कर साहस, धैर्य,शांति,तुम्हारा बल,
सुकून का एक ठहराव,
गर बन पाऊँ सच मे,तुम्हारी संगिनी हर पल

होगी उपलब्धि मेरी जब,
छोड़ सारी युगल परिभाषाएँ
हो जाऊं तूम संग मैं एकल....
 

सुप्रिया "रानू"

Wednesday, April 11, 2018

डर

प्रेम तो निस्वार्थ निश्छल होके खुद को खोना है,
तो फिर प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम के न मिलने का
कैसा  ये डर  का होना है,

नवजनित पुत्र से डर है माता पिता को ,
कहीं ये बड़ा होकर वृद्धाआश्रम ना छोड़ आये,
नवजनित पुत्री से डर है माता पिता को,
कहीं युवावस्था तक पहुंचते ये अपनी इज़्ज़त बलात्कारियों के पास न छोड़ आये...

पढ़ने लिखने वाले छात्र छात्राओं को डर है
कहीं अनुतीर्ण न हो जाएं,कहीं मेधा सूची से बाहर न हो जाएं,
अभिभावको को डर है कहीं असफलता से मेरे बच्चे अपना जीवन न खो जाएँ..,

विवाह के पहले परिवारों को डर है,आनेवाली बहु हमारे संस्कारों का वहन कर पाएंगी
और विवाह करती लड़कियों को डर है,की क्या वो आनेवाले जीवन मे दहेज की प्रताड़ना सहन कर पाएंगी

जंगल के नुमाइंदों को डर है,कहीं ये आधुनिकता हमारा आशियाना न निगल जाए,
धुर्वों पर जमी बर्फ को डर है कहीं  प्रदूषण से हमारा अस्तित्व न पिघल जाए,

चयनित प्रशासन के प्रतिनिधियों को डर है कि कहीं जनता उनका मत न छीन ले,
चयनकर्ता जनता को डर है,चयनित प्रतिनिधि कहीं
उनके सारे हक अधिकार न छीन ले,

प्रेम तो निस्वार्थ निश्छल होके  खो जाना  है,
फिर ये प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम के न मिलने का कैसा डर  का होना है,
बस प्रेम में लिप्त होके हम पूरी समर्पण से अपनी कर्तव्यनिष्ठता से अपनी सीमाओं में रहेंगे,
यकीन मानिए इस सम्पूर्ण डर को अपनी काबू में करेंगें,

प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम ही होता है,
कभी देर कभी सबेर होता है......

Monday, April 9, 2018

आँधियों का आगमन

झकझोर गया है..,
खुले आसमान तले जीनेवालों का मन,
आँधियों का आगमन..

छोटी अम्बिया जो डालियों से लगी हैं,
जाके चुम आती हैं पत्तियों को जो सगी हैं,
आँधी आयी थी ,आज उनका मन आंकने ,
देखो कैसे धरा पर धूलों से लिपटी पड़ी है,
मानो प्रकृति के प्रहार से ठगी है,

झकझोर गया है,
खुले आसमान तले जीनेवालों का मन,
आँधियों का आगमन..

धूप गर्मी बरसात में जो वृक्ष अडिग रहा,
विपरीतताओं में भी जो अचल स्थिर टिका,
हवाओं ने यूँ रुख मोड़ डाला है,
खड़े विशाल वृक्ष को धरा पर रौंद डाला है,

झकझोर  गया है,
खुले आसमान तले जिनेवालों का मन,
आँधियों का आगमन..

आज ही बनाया था छोटी गौरैयों ने
एक एक तिनका समेट के अपना नीड़,
बिखेर डाला है आँधियों ने एक एक तिनका,
असहनीय है नन्ही जानों का ये पीड़,

झकझोर गया है,
खुले आसमान तले जीनेवालों का मन,
आँधियों का आगमन..

सड़क किनारे बच्चों ने नई पेंटिंग बनाई थी,
उनकी अम्मा ने धूप में बिछाया था बिछावन,
आंधियां उड़ा ले गयी नन्ही कलम की कला,
बारिश गिला कर गयी है आज सारे बिछावन,

झकझोर गया है ,
खुले आसमान तले जीनेवालों का मन
आँधियों का आगमन

देख के आँधियों का रुख
आज ठाना है अम्बिया जो लगी हैं पेड़ों से,
जुड़ी रहेंगी अड़ी रहेंगी ,
वृक्षों ने अपनी जड़ों को और मजबूती से बिखेर डाला है धरा में,
गौरैइयाँ जुटा रही फिर से तिनका तिनका,
बच्चों ने कलम थाम ली,और अम्मा हवाओं को कोष कर फिर बिछावन फैला रही है,

और हम
अपने सारे खिड़की दरवाजे बंद कर
सारा सामान बचा लेते हैं,
फिर भी बस पड़ी धूल घर मे साफ करना
लगता है बेमन

झकझोर गया है,
खुले आसमान तले रहने वालों का मन
आँधियों का आगमन...

     सुप्रिया "रानू"

Thursday, April 5, 2018

ये शोर कैसा

है धरा हम सबकी,
हम सब हैं इसके,
तो यह हिस्सा तेरा यह है मेरा
ये शोर कैसा...

है फलक सबके ऊपर ही,
फिर ये सरहद पार का आसमान तेरा
इस पार का मेरा ,
ये शोर कैसा...

करनी है सबको ही इबादत,
अर्चना और शुक्रिया ऊपरवाले का ही
फिर ये अल्लाह मेरा,
वो भगवान तेरा,
ये शोर कैसा...

बह रही जब एक नदी निर्बाध सबको तृप्त करने
फिर इसका इतना  पानी मेरा
और इसका इतना  पानी तेरा ,
ये शोर कैसा...

दौड़ता है एक ही लाल रंग का लहू ,
जब तेरे और मेरे बदन में भी,
फिर मैं मुसलमान,तू हिन्दू,
वो सिक्ख और ये ईसाई
ये शोर कैसा...

थोड़ी देर को पाश्विक प्रवृति ही अपना लो,
एक के गिरते सब मिल के उठा लो,
बन सको जो जानवर भी पलभर को,
ये लड़ाई वो मारामारी का आलम,
फिर रह कहाँ जाएगा
कोई शोर कैसा....

सुन सको तो सुन लो
मैं तेरा तू मेरा
मेरा सब कुछ तेरा तेरा सब कुछ मेरा
प्रेम में लिप्त शोर ऐसा...
प्रेम में लिप्त शोर ऐसा....

                            सुप्रिया "रानू"

Wednesday, April 4, 2018

नई किताब लिखते हैं

मन जब उड़ना चाहता है,
उस असीमित आसमान में,
और पैर बन्ध जाते हैं,
कुछ विचारों के जहां में,

अपने हर सवाल का खुद ही जवाब लिखते हैं,
दिल भर आता है भावों से तो ...,
एक नई किताब लिखतें हैं..

आवाज़ रुक सी जाती है जब
चीख सकने के हालात में,
मन हारता है,जब
पाबंदियों को खोलने के खयालात में,

अपने हर सवाल का खुद ही जवाब लिखते हैं,
दिल भर आता है भावों से तो,
एक नई किताब लिखते हैं..

अंतर्मन में जब नई कोंपलें
आती हैं सपनो की ,
भेद दूर हो जाते हैं जब
गैर और अपनों की..

अपने हर सवाल का खुद ही जवाब लिखते हैं,
दिल भर आता है भावों से तो ,
एक नई किताब लिखते हैं...,

           सुप्रिया "रानू"

Monday, April 2, 2018

पंख फैलाओ

हैं इक्षाएँ जीवित,
है मन समर्पित,
कर्म का आधार है निहित,
तो संभावनाओं की बाट न जोहो,
संग हवा के संग पक्षियों के बहो,
अपनी कर्मठता को आधार बनाओ,
आसमान खुला है,
बस अपने पंख फैलाओ...

वक़्त सीमित है यहां ,
क्षण क्षण समर्पित करना होगा,
स्वार्थ की इस दुनिया मे ,
स्वार्थ अर्पित करना होगा,
मन की चंचलता को स्थिर करना होगा,
चित को निश्छल बनाओ,
आसमान खुला है,
बस अपने पंख फैलाओ...
     
                               सुप्रिया '"रानू"

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...