Wednesday, August 29, 2018

बैरी निंदिया

सो रहा जग सारा गहन चिर निद्रा में,
पत्ते पत्ते भी नींद से भरे
हवाओं के झकोरों से भी हिलना तक न चाहते,
चाँद भी मानो बत्ती जलाकर अलसाया सा
ठिठक गया है ऊँघ कर आसमान के एक तल पर
सितारे बाहों में बाहें डालें
टिक गए हैं एक जगह
उबासियाँ लेते जुगनू भी अब
कोई दीवार तो कोई छत से चिपक कर
टिमटिमाते टिमटिमाते रुक से गये हैं,
कुछ देर पहरा देकर अब गली
में दौड़ लगाने वाले जीव जन्तु भी
एक एक जगह लेकर सो रहे हैं,
छत से लगा पंखा भी मानो
बस बिजली के कनेक्शन से ही हिल रहा हो,
और बत्तियां सारी सिमट के सो गई हैं,
रात्रि के गहन अंधेरे में
सब अपनी अपनी थकन मिटाने को
नींद की आगोश में आ छुपे हैं,
और मेरे नयन अपलक खुले
एकटक देख रहे हैं छत की ओर
ये बैरन नींद भी न आती,
तुम्हारी यादों की दस्तक है,
जो नींद को दरवाजे के उस पार खड़ा कर रखा है
किसे कहूँ बैरी तुम्हारी यादों का
मेरी नींद को...

Monday, August 6, 2018

आओ खामोश बैठे कुछ देर

शब्दों,बातों में अहम झलक जा रहा,
और बातों ही बातों में
एक दूसरे से टकरा जा रहा,
इससे पहले की दोनों
अहम एक दूसरे से लड़ भिड़े,
और अपनी सारी हदें भूल जाएं,
अपने संस्कार भूल जाएं,
मन की हर कुंठा कुशब्दों में
अभिव्यक्त होने लगे,
मैं कुछ कहूँ तुम कुछ कहा,
और उन बातों की गांठ बांध
मन मे हम आहत हो एक दूसरे से
छुप के बच के रोये,
छोटी चीजों में उलझ कर
हम अपना परस्पर प्रेम खोये,
बातों ही बातों में एक दूसरे के प्रति
किये कर्तव्यों को एहसान की श्रेणी में रख दें,
एक दूसरे के निश्छल प्रेम को
स्वार्थ में परिणित कर दें,
ये मैं और तुम आजकल अक्सर
हर जगह मिल जाएंगे
सिर्फ अहम में टकराव हर दो लोगो मे मिल जाएंगे
चाहे ये दो दोस्त हों,
पति पत्नी हों,सास बहू हो,
बाप बेटा हो,भाई बहन हो,
हर रिश्ते के बीच मे ये एक
अहम की दीवार बन गयी है,
बातों ही बातों में
बातों के लिए रिश्तों में ठन गयी है,

सो आओ कुछ देर खामोश बैठे....

सुप्रिया 'रानू'

Thursday, August 2, 2018

महज़ ख्वाब ही तो था

जिसके हाथों में होनी थी किताबें,
वो माँज रही बर्तन हर घर मे
पढ़ के बनना था उसे भी डॉक्टर,
क्या हुआ जो बिखर गया
परिस्थितयों की चोट से
महज़ ख्वाब ही तो था...

पटाखे का कारखाना हो,
या चाय रेस्तरां में बर्तन धोते नन्हे हाथ
या किसी के घर मे सबकी जरूरतों
की चीजें पहुंचते हाथों हाथ,
पढ़ के बनना था
किसी को इंजीनियर,
किसी को पायलट और
कोई सरहद पे जाना  चाहता था,
क्या हुआ जो बिखर गया
परिस्थितियों की चोट से,
महज़ ख्वाब ही तो था,

उसकी भी ख्वाहिश थी,
अपनी पहचान की,
अपने आत्मसम्मान की,
अपने नाम आने बुते
पर पाए कुछ अपनों की,
क्या हुआ जो वो बंध गयी
चूड़ी सिंदूर मंगलसूत्र से
क्या हुआ जो बिखर गया,
परिस्थितियों की चोट से
महज़ ख्वाब ही तो था..

करनी थी उच्चस्तरीय पढ़ाई,
कुछ दिन और पढ़ना था,
पैसो से कोई मोह न था,
फिर भी घर की जरूरतों
ने नौकरी लगवा दी
क्या हुआ जो बिखर गया
परिस्थिति की चोट से
महज़ ख्वाब ही तो था,

न जाने कितने ऐसे दबे
ख्वाब कोई तबके पे फाइलों में दबा है,
कोई ख्वाब रोटियो के साथ रोज सेंका जाता है,
कितने ख्वाब चूड़ियों की तरह हाथों की बेड़ियां बन गए,
और न जाने कितने ख्वाब उन तरसती आंखों में
सदा झलकते हैं जब बर्तन मांजते हाथ
किताबों को निहारते हैं,

एक पहल करनी है बस ऐसे सारे दबे
अधमरे ख्वाबों को मौको का ऑक्सीजन देना है,
और उन्हें जीवित करना है आज़ाद करना है
हमेशा के लिए खुले
आसमान में उड़ने को
और तब बन जाएंगे जीवन
ये महज़ ख्वाब हमारे...
सुप्रिया "रानू"

Wednesday, August 1, 2018

मैं,मैं कहाँ रह जाती

मैं सिर्फ मैं सोचूँ
तो स्वार्थी कहलाऊँ,
मैं,तुम और मैं सोचूँ तो
प्रेम में अंधी हो जाऊं,
मैं सिर्फ अपना परिवार देखूं,
तो अव्यवहारिक हो जाऊं,
मैं परिवार के दायरे बढाऊँ,
तो सामाजिक कहलाऊँ,
न जाने कितनी परिभाषाएं
और उन परिभाषाओं के
न जाने कितने आलेख
कितनी सीमाएँ, कितने नियम
और न जाने कितनी विडम्बनाएं,
कितनी सोच कितने विचार
न जाने मेरे एक कदम
पर टिकी कितनी टिप्पणियां,
मैं चलूं भी न तो कदम
के चर्चे कहाँ तक पहुंच जाते हैं,
शायद यही है दुनिया,
और दुनिया के लोग
जो आपको कभी आपकी तरह नही,
खुद की सोच से परिभाषित करते है,
और ऐसे में मैं मैं भी नही बन पाती
जो बनना चाहती
न वो ही राह जाती,जो लोगो को है भाती,
फिर बताओ मैं,में कहां रह जाती...
सुप्रिया " रानू"

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...