Tuesday, October 30, 2018

नंगा सच

भरे पूरे कपड़ो में
सजा धजा झूठ
सुंदर आकर्षक
मनमोहक और
परम प्रेम का परिचायक बना
वकपटुताओं की पराकाष्ठा पार करता
दिखावे की दुनिया मे लिप्त झूठ,
मात दे देता है क्षण भर को
और कभी कभी दीर्घकाल तक
नग्न ,कड़वे, आडंबरों से मुक्त
खरे,सच को अक्सर...
पर सच  अपनी बदसूरती को
थामे अपनी नग्नता पर बिना शर्मिंदा हुए
दृढ़ता से बेशर्म की तरह अड़ा रहता है,
गलत साबित होकर भी,
सही होने की आस में पड़ा रहता है,
झूठ बनता है इतराता है,
औऱ हर बार पग पग पर
सच को नीचा दिखाता है,
सच संयम रख कर धैर्य को
मन से बांध कर चुपचाप खड़ा रहता है,
और फिर वक़्त के करामात होते हैं
अजूबे अजूबे
जो भी है झूठ में डूबे,
तर आते हैं पानी के ऊपर
जैसे बिना जान के मुर्दा होता है,
घुट घुट के ही सही जिया पर
आखिर तक सच ही जिंदा होता है,
और बादल सारे दिखावे के छंट जाते है,
सच जिनके भी दामन से बंधा हो,
वो सितारों की तरह आसमान में उभर आते हैं,
तो भूल से भी दिखावे के झूठ का दामन न थामिए,
बेशर्म बेहया,और बिंदास बनिये
सच से तौलिये खुद को और सच से ही चलिए..
झूठ की सारी चमक धूल जाएगी
आखिर में सच की सफेदी ही काम आएगी...
सुप्रिया"रानू"

Monday, October 29, 2018

बंधन

मैं रिश्तों के बंधन में हूँ,
तब तक जब तक
वो प्रेम से बंधे हैं...

मैं उन्मुक्त हो जाती हूँ
स्वभावतः उस हर बंधन से
जहां अहम, जहां ईर्ष्या,
जहां अपमान,जहाँ तिरस्कार,
और जहां समझ का अभाव हो...
चेहरे के पीछे छिपे एक
चेहरे में अनगिनत दुराव हो...

मैं रिश्तों के बंधन में हूँ,
तब तक ....

मैं धुल डालती हूँ,
जबरदस्ती मनमर्जी करने वाले
सारे दाग अपने आत्मस्वाभिमान से,
मैं भूला देती हूं वो सारे घाव
जो किसीने अपनी संस्कारहीनता में दिए हैं,
क्योंकि घाव जो मन मे बसे होते हैं
रिसते रहते हैं,और टीसते रहते हैं
अंदर ही अंदर..

मैं रिश्तों के बंधन में हूँ,
तब तक...

मैं समर्पित हूँ उस हर जगह
जहां मेरे समर्पण को समर्पण समझा जाये,
और स्वार्थी हो जाती हूँ उस हर पल में
जहां अपनेपन की चाशनी में
स्वार्थ डुबोया जाए...
मैं असीम अनंत प्रेम का प्रकाश नही बनना चाहती
जो खुद रौंदे जाने के बाद भी पनपती रहे.
मैं स्वक्छ निर्मल निर्बाध प्रेम का दरिया बनना चाहती हूँ,
जहां पवित्र भावनाओं का प्रवेश ही वांछनीय हो..

मैं भगवान नही बस एक निर्मल इंसान बनने चाहती हूँ,
प्रेम के बदले प्रेम और सम्मान से सम्मान देना चाहती हूं

मैं उड़ जाती हूँ आज़ाद परिंदे की तरह
जिस रिश्ते में घुटन होती है,
और थम जाती हूँ उस रिश्ते में
जिसमे शुद्ध प्रेम की वजन होती है...

मैं रिश्तों के बंधन में हूँ...
तब तक....

सुप्रिया"रानू"

Saturday, October 27, 2018

बड़े लोग

मिलती है मिठास वो
झोपड़ी में रखे मिट्टी
के घड़े के पानी से जो,
प्यास कहाँ बुझ पाती है,
अदब से दिए वो
बर्फ वाले पानी से...
वो प्रेम वो समर्पण कहाँ से लाएंगे..
जिस दिन ये सारे मिट्टी के घर
पक्कों में बदल जाएंगे...
दौलत में अदब है,
लहजा है,तौर और तरीका है,
सुंदर बनावटी चेहरे और सुंदर
बनावटी सजावट..,
गरीबी ने जतन कर रखी है
प्रेम भाव और त्याग अब भी..
यूँही उग जाने वाली दुब
की ठंडक कहाँ से लाएंगे,
ये जो सड़कें सारी जब चौड़ी हो जाएंगे..
वो प्रेम वो समर्पण....
जतन से रोपे पौधों को अब कहाँ
गाय बकरी और भेंड़ कहा पाएंगे
अब वो लकड़ियों की आड़ वाली
दीवार नही,
अब तो पक्की दीवारों से
बस कुत्ते इंसानो को भी देख भौंकते रह जाएंगे...
धूल पत्थर और ईंट के रास्तों पे
जो नंगे पैर दौड़ जाते थे कभी,
अब तो चप्पलों के साथ भी कहते चुभ जाएंगे..
वो समर्पण....
मोमबत्तियों न जाने कितनी लाइटों में
अब वो मिट्टी के दिये कहाँ से लाएंगे
मिट्टी के बर्तन और मिट्टी के खरौंदों
को कहां जुटा पायेंगे,
दीवाली की मिठाईयों में वो मिठास कहाँ से लाएंगे,
चम्मच से खाने की आदतों में,
उंगलियों में लिपटा खाने का स्वाद कहाँ से चख पाएंगे,
वो समर्पण ....
अदब के इस जीवन मे बस अदब ही सीखते
और सिखाते रह जाएंगे..
काश बन जाते बेअदब थोड़ा तो जीवन जी जाएंगे
बेपरवाह जो प्रेम का रस है तभी प्रेम से पी पाएंगे
दिखावे की इस जहां में रहें छोटे ही रहे,
न बने बड़े लोग..
प्रेम से प्रेम का सदा होता रहे संयोग...
सुप्रिया"रानू"

Wednesday, October 24, 2018

दरिया

बना तो डालूं मैं मन को
एक स्वक्च्छंद दरिया,
जो बातों की आवृत्ति
से तनिक भी विचलित न हो,
निर्वाह निरंतर बहता
ही रहे अपनी धुन में
पर क्या ,भरोसा
लोग बस उसकी निर्मुक्तता
और निरब्धता का आनंद लेंगे,
क्यों ये कल्पित करूँ मैं
की मल मूत्र सरीखे
अपने विचार इस उन्मुक्तता में
धो न सकेंगें... अब भला
मल मूत्र सरीखे विचार भी होते हैं,
और वो मन की दरिया में धोये भी जाते हैं,
बिल्कुल होते हैं,
कलुषित संकीर्ण मानसिकता,
खुद को बड़ा बताने की होड़ में
किसी को छोटा बना देने की मानसिकता,
खुद को सही करने की धुन में
सबको गलत ठहरा देने की मानसिकता
मल मूत्र ही तो है जो
सिर्फ गंदगी फैला सकता है,
यकीन मानिए उत्सर्जित
सारी चीजों का समुचित प्रबंधन आवश्यक है,
वैसे इन कलुषित विचारों का भी प्रबंधन
उनका जीवन से पूर्णतः बहिष्करण
सो मन को स्व्क्छंद दरिया तो बनाऊँ
पर उसपे पहरे विचारों लगाऊँ,
निर्मल निर्बाध विचारों
का दरिया मन मे यूँही निवरत बहता रहे ...
सुप्रिया"रानू"

Tuesday, October 23, 2018

चांदनी रात

चाँद की मध्यम और कभी तेज़ होती
रोशनी मीठी सी उष्णता
तो कभी थोड़ी नमकीन सी ठंडक के साथ
मेरे हाथों को थामे हाथों में
बिखरती छिटकती सी
चाँदनी खड़ी थी मेरे पास,
साँसे थम थम कर चल रही हो मानो
और रूह को कोई सुकून सा मिल गया हो,
एकटक चाँद को देख चल रही थी
उधेड़बुन
मानो कोई चेहरा एकटक
बड़ी बड़ी आंखों से देख रहा हो मुझे,
मध्यम सी हवाएं सर्द सर्द
सिहरा जा रही थी रोम रोम
और मन उड़ रहा था
बेलगाम घोड़े की तरह
कल्पनाओं के लोक में
सपनो के पर बाँधे,
तारों की टिमटिमाहट
अपने होने का एहसास दिल रहे थे
और मेरी नज़रें एकटक चाँद को निहार रही थी,
कोई तारा टूटा भी
और एकटक चाँद को देखना मानो
सारी मन्नते पूरी हो गयी
कोई मन्नत अंतर्मन में करवट भी न ली
और मैं पूरे सुकून और जतन से
निहारते निहारते चाँद को
सुबह का अलविदा कह दिया,
चाँदनी रात...
एक सुनहरे लाल सूरज में सिमट गई
और मेरी टकटकी मानो अल्पविराम पर रुक गयी...
चाँदनी रात,
मानो प्रेम का वो छोटा सा लम्हा जो
संतृप्त कर देता है तनमन और
पलक झपकाने की भी जरूरत न होती...
चाँदनी रात
इंतज़ार है अंधेरों के ये लंबे पन्द्रह दिन पार कर
चाँद फिर आएगा टूटते जुड़ते और
लेकर एक चाँदनी रात

सुप्रिया "रानू"

Friday, October 19, 2018

वजह तुम ही हो

ये जो मैं मुस्कुराकर सब सह लेती हूं,
मन दिल जब भारी हो तो
कोई कविता कह लेती हूँ,
रोना न कोई मेरा जान पाता है,
अक्सर आंखे मूंद कर
तुम्हारे गोद में सर रखने का सुकून पा लेती हूँ,

ये मुस्कुराता चेहरा और ये दृढ़ मन
तुम्हारा ही स्वरूप
एकदम तुम्हारे जैसा तन
जननी हो तुम,
मुझे सृजित करने वाली,
और मेरे जीवन की वजह हो तुम

ये जो सिखा गयी हो
बालपन में ही कलाकारियाँ
जीवन जीने की,
चलना भी न सीखा
जब इस दुनिया के रास्तों में
जो भर गई हो मुझमे अदाकारियाँ
सब निभा लेने की,

ये मुस्कुराता चेहरा,ये दृढ़ मन
तुम्हारा ही स्वरूप
एकदम तुम्हारे जैसा तन
जननी हो तुम
मुझे सृजित करने वाली
और मेरे जीवन की वजह हो तुम

कल्पित नही था जीवन तुम्हारे बिना,
पर बेहतर जी लेती हूँ,
सोच न था रिक्तियां तुम्हारी कभी कोई
पूरा न कर सकेगा आजीवन
यकीन मानो तुम्हारे न होने का गम
चुपचाप पी लेती हूँ,

ये जो अदम्य साहस है मन
में कुछ भी कर गुजरने की
उसकी वजह हो तुम,
मेरे जीवन की वजह हो तुम...

तुम्हे न सोचूं तो दिन और दिन के पल
बेवजह हो जाते हैं,
तुम्हारी राह तकते थक के ये नयन
अक्सर अश्क़ों में डूबे सो जाते हैं,
मंजर हो दुख का या सुख के हो पलछिन
तुम बिन सब निरथर्क से लगते हैं
तुम होती तो क्या होता
अरमान इन्ही खयालों में खो जाते हैं...

फिर भी खुश रहती हूँ,
और खिलखिलकर
जी लेती हूं हर पल
वजह तुम हो...
तुम्हारे बाद भी जी रही हूँ
इसकी भी वजह तुम ही हो...
मेरे जीवन और मेरे अस्तित्व की वजह तुम ही हो....

सुप्रिया"रानू"

Tuesday, October 16, 2018

मैं माँ बनना चाहती हूँ

मैं माँ बनना चाहती हूँ
क्या नया है इसमें
हर स्त्री बनती है,
सबकी क्षमता है,
पर,
मैं थोड़ा स्त्रैण पुरुष
और थोड़ी पौरुषेण स्त्री जनना चाहती हूँ,
मैं माँ बनना चाहती हूँ...

मैं प्रकृति नही बदलना चाहती,
अपितु इसके साथ चलना चाहती
सामाजिक,पारिवारिक जीवन
के दिखावटी सामंजस्यों को
सत्य में पाटना चाहती हूँ,
अर्धनारिस्वर का स्वरूप
यथार्थ में बाँटना चाहती हूँ...

पुरुष जो स्त्री को समझे मातृ स्वरूप,
पुरुष जो समजिकताओं में झोंक कर
न करे मटियामेट उसके अस्तित्व का रूप
पुरुष जिसका गौरव हो रक्षित करना स्त्री का स्वाभिमान
पुरुष जिसके लिए घरेलू हिंसा हो उसके अस्तित्व का अपमान,
पुरुष जो संयमित पर्वत से खड़ा हो,
हो भिज्ञ अपनी सीमाओं से अपने वचन पे अड़ा हो,
होकर निहत्था जिसके सामने स्त्री के अपमान से जुड़ा
हर सामाजिक नपुसंकता पड़ा हो..

शायद हो असंभव पर जनकर सामान्य जन
यथार्थ में कृतियों को अमर्त्य रूप में पलना चाहती हूं,

मैं थोड़ा स्त्रैण पुरुष
और थोड़ी पौरुषेण स्त्री जनना चाहती हूँ,
मैं माँ बनना चाहती हूँ..

स्त्री जो स्व के भाव में रहना जाने,
अपने आंनद में बहना जाने,
जो प्रेम में डूबकर भी
खुद के पैरों पे खड़ी हो,
वो नही जो प्रेम देकर असीमित भी,
पैरों तले पड़ी हो,
जो अपना सही मूल्य जाने,
जो स्व को पूर्णतः पहचाने,
जो संयमित हो
जो छल प्रपंच और स्त्रियों के लिए ही
वैमनस्य से विरक्त हो,
जो खरा,नीरा सत्य,सा
सफेद , उज्जवल निर्मल प्रेम
करने की आसक्त हो...
स्त्री जो विषमताओं में काली बनने
का अदम्य साहस रखती हो,
स्त्री जो दम घुटने तक न नियमो पर चलती हो,
स्त्री जो प्रेम में उड़ती हो..

है कल्पना कवि मन की
जानती हूं असम्भवों को संभव करना चाहती हूँ,

मैं थोड़ा स्त्रैण पुरुष
और थोड़ी पौरुषेण स्त्री जनना चाहती हूँ
मैं माँ बनना चाहती हूँ...

सुप्रिया "रानू"

Sunday, October 14, 2018

उलझती रही

ज़िन्दगी के फलसफे में डूबती तरती रही,
सुलझ कर भी कई बार यूँही
उलझती रही...
उलझनों का क्या है
मौके बेमौके आते जाते रहे,
मैं मौन बैठी जीवन के खेल समझती रही,
सुलझ कर भी कई बार यूँही उलझती रही...
दो चेहरे वालों को अपना समझती रही,
गैरों को भी परखती रही,
कभी अपनी भावनाओं से हारी,
तो कभी औरों  के फरेब में अटकती रही,
सुलझ कर भी कई बार यूँही उलझती रही...
दुनिया मे रह कर भी दुनियादारी समझना,
कौन है अपना कब कौन पराया बन गया
किसे कितना प्यार दो और कितना कोई ले गया,
झूठ की इज़्ज़त और झूठ के रिश्ते
कभी झुठ का सब कुछ और सिर्फ हम अकेले पिसते,
कभी अकेले में भी महफिलें थी,
कभी  महफिलों में भी अकेले झलकती रही,
सुलझ के भी....
कोई रंग न है वफ़ा का नही धोखे का कोई रंग
कोई रंग न है अपनेपन का न ही परायेपन का कोई ढंग,
जीवन का सार इतना ही बस जियो अपनी धुन में,
जो कहे दिल की सही है करो पूरे मन मे,
उलझने आएंगी और जाती भी रहेंगी
उलझोगे तो तुम्हारा समय भावना और न जाने क्या क्या
रिश्ते,अपनापन परायापन सब खाती रहेंगी
जिओ हर पल जीवन का
और कहो हर बार यह मैं जीवन को समझती रही
महसूस करो इतना ही
ससुलझ कर भी मैं उलझती रही...
सुप्रिया 'रानू'

Saturday, October 6, 2018

हौसला ही तो है...

अभी मेरे कान नाक और आंखे भी ढंग से न बनी थी,
धड़कने धीरे धीरे चल रही थी,
अभी मैं बन ही रही थी,
की माँ के गर्भ से बाहर
कुछ हलचले चल रही थी,
सब जानना चाहते थे कि
मैं गुड़िया हूँ या कुलदीपक,
माँ कहती हैं कि
बड़ी मुश्किल से बचा लिया मुझे,
दुनिया मे आयी
रंगबिरंगे लोग,सोच दायरे
सपने न जाने कितनी चीजें
देखी धीरे धीरे जीवन
के पड़ावों को पार करती रही,
आधुनिकता के बदलते आयामों के साथ,
रूढ़िवादिता और सामाजिक दायरों
का सामंजस्य करते रही
कभी सपनो को मार दिया कभी
सबकी मनमानी को सपनो के लिए मार दिया
आज उसी मोड़ के खड़ी हूँ
कोख में लिए एक नन्ही जान को
जो कहती है कि मुझे आना है दुनिया मे
और दुनिया जो मेरे आसपास है वो कह रही
नही आना है उसे दुनिया मे,
लेकिन मैं भी माँ की तरह
खुद को खड़ी किये हूँ दीवार बनाकर,
माना बदल गया है ज़माना,
लेकिन दबे छुपे चल रहे है
वही पुराना ताना बाना,
और आज नन्ही गुड़िया आयी है आँगन,
माँ तुम्हारी ही बेटी हूँ,
मन कहता है जैसे मैने जिया,
ये नन्ही कली भी जियेगी
और न जाने कितने ऐसे ही
किलकारियां जियेंगी बस
कर के देखिए मन को मजबूत
क्योंकि
हौसला ही तो है..
जो जीवन को जीवन बनाता है,
असंभव लगने वाले भी
काम संभव कराता है..,
हौसला ही तो है....

सुप्रिया "रानू"

Tuesday, October 2, 2018

यूँही तो नही बोला होगा..

जिसने सुखी धरती के तृप्त हो जाने को,
महीनों तक मेघों का राह तका,
जो चुपचाप पानी से भरे खेतों के सूखने को,
सूरज से गुहार किया,
जो अकाल में भी ईश्वर
को ही एकटक देखा,
नही तो..
सहने वाला असीमित पीड़ा
यूँही तो नही बोला होगा,
सहने की सीमा पार हुई होगी
तब जाके गाँठ मन की खोला होगा..
जो मेहनत का ही स्वरूप जानते हैं,
अपने कर्मो को ही अपना तकदीर मानते हैं,
खून पसीने से सींचकर उगाई फसलों को
कम कीमतों पर भी देना जानते हैं,
कुछ तो घुटन हुई होगी,
वो यूँही तो नही फंदे पे झूला होगा,
सहने वाला असीमित पीड़ा,
यूँही तो नही बोला होगा...
आठ,दस,बारह घंटे के वेतनमान से दूर
जो सिर्फ सूर्योदय और सूर्यास्त
को ही अपने काम का पैमाना मानता है,
इतवार, सोमवार,होली दीवाली,राष्ट्रीय छुट्टी
भला वो क्या जनता है,
जिसने आकांक्षा भी न कि कभी
आधुनिकता की,
जो प्रकृति की गोद मे सिमटना जानता है,
कहीं तो चूक हुई होगी
विद्वानों ने न उसका सही मूल्य मोला होगा
सहने वाला असीमित पीड़ा यूँही तो नही बोला होगा...
जो नही जानता सरकारों को,
क्षण क्षण बदलनेवाले व्यवहारों को,
धरती से अन्न उगाना ही जिसका जीवन है,
खुद भूखे रह कर भी सबका पेट भर दूं ऐसा उसका मन है,
अक्षम समझा होगा अपने पखेरूओं का
पेट भर पाने में, 
पोंछ के आँसू आंखों से खूंटे से उन्हें खोल होगा,
सहने वाला असीमित पीड़ा यूँही तो नही बोला होगा...
तुम रखो अपनी दिल्ली साफ,
गांव का धूल न वो रखने आये हैं,
कुछ असहनीय पीड़ाएँ हैं उनकी
कह लेने दो जो वो कहने आये हैं,
करना न करना किसके बस में है,
सालों से सहते हैं,वो दुनिया मे सहने आये हैं,
सीधे सच्चे इंसानो पर इतनी बेरहमी
ईमान नही क्या डोला होगा
सहने वाल असीमित पीड़ा यूँही तो नही बोला होगा
सुप्रिया 'रानू'

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...