Thursday, January 4, 2024

क्या प्रेम जताया या बताया जाता है?

प्रेम तो सिर्फ कर पाने की चीज़ है,
न उसे बताया
न उसे जताया जा सकता है,
न उसे खोया 
न पाया जा सकता है,
निश्चय ही,
अनुभूति और निःशब्द 
हो जाना ही प्रेम की वास्तविक परिभाषा होगी,
क्योंकि शब्द तो सीमाओं में बंधे होते हैं,
और जताना तो थोपी जाने वाली भाषा होगी,
प्रेम तो परिणाम से अनभिज्ञ,
निरन्तर विस्तार को प्रतिज्ञ,
और स्वयं को भूल जाने को भिज्ञ
रहकर भी प्रेम में डूबने को प्रतिबद्ध
निर्बाध बहते जमे वाली भावना है,
जो परे है स्वार्थ से,यश और प्रवंचना से
जो प्रतिबद्ध नही है ,अभिव्यनजना से,
प्रेम तो बहते जाना है 
निर्बाध सरि की भाँति,
आनेवाले पठार समतल और वृक्षों की जड़ों 
से कट जाने के भय से अनजान होकर
प्रेम कर पाने और हो जाने की भावना है,
असीमित हो जाने की संभावना है। 





Friday, December 1, 2023

प्रेम और अपार

सच कह रहे हो ! 
प्रेम और अपार ,
उतर पाते हो क्या इस प्रेम में
स्वार्थ के उस पार,
उस वक़्त जब दूर कहीं 
अकेले देख रहे होते हो 
समुंदर की लहरें 
तो उठता है एक समुंदर का तूफान
तुम्हारे दिल मे भी 
मेरे लिए,
या यूँही बस कह देते हो 
की याद आ रही,
प्रेम शब्दों में नही खोता कभी,
एहसास एहसास को ढूंढ लेता है
बिना किसी माध्यम के,
और फिर ये न दूर होता कभी,
सुनो शब्दों में न करना प्यार मुझे,
बस मौन का एहसास देना,
यकीन मानो मैं दूर से भी थाम 
लूँगी,
तुम सुबह बने तो ढलकर 
मैं शाम दूँगी।
थोड़ा ही सही सच्चा दुलार करना,
अपार न सही पर स्वार्थ से परे 
प्यार करना।
सुप्रिया पाठक "रानू" 

Saturday, November 25, 2023

धान काटती स्त्री

धान काटती स्त्री
धूप निकलने पर आई है खेतों में,
सुबह से चौके,तो बच्चे 
घर आंगन सब लीप पोत कर,
कपड़े और गीला आंगन सब सूखने को छोड़कर,
खुद भी सूख रही है सर्द की गुनगुनी धूप में,
सूखे धानों की बालियां समेटती
लगती है,समरूप
मेट्रो शहरों में तड़के भागती
स्त्रियों के ही,
जो किचेन बच्चे घर सब संभाल कर 
बालों के जुड़े बनाते,
दौड़ती चढ़ती मेट्रों, और बस में,
सूखता है उसका भी मन 
ऐरकंडिशन की भीनी ठंडक में,
और सूरज ढलते बेचैन सी भागती स्त्रियां
धान की बालियां साड़ी के कोरो पर लिपटी,
जुड़े ढीले और खाली टिफिन सब्जी से भरे बैग
और भागकर बच्चों को साइन से लगा लेंने को
बेकल स्त्रियां 
रसोई समेटकर सुबह की तैयारी कर लेने को 
बेकल स्त्रियाँ
सूखती तपती और स्थिर स्त्रियां।
सुप्रिया पाठक"रानू"

Wednesday, June 23, 2021

कैसे करे सफलता आलिंगन

कैसे करे सफलता आलिंगन
जब तक मन न बने स्व अवगुण का दर्पण।

बंदिश मुक्त रखा बच्चों का बचपन,
आस संजोए मात-पिता मन ही मन।
उभरे बच्चों में हर तरह के  सद्गुण,
पाबंदियों के बिन आये कहाँ से गुण।

उड़ता मन चाहे सदा उन्मुक्त गगन,
मुक्त मन को बांध न पाए बंधन।
चित ठहरे तो संजोए सब सद्गुण,
और त्यागे अन्तस् के सारे अवगुण।

बिना तपस्या कहाँ से पाएं ज्ञान गहन,
तज के सारे मोह करने होंगे बड़े जतन।
खुद की कमियों का कर स्वयं मनन,
प्रगक्ति पथ पर निरंतर रहे मन।

न रोक न टोका न बाँधा कभी मन।
कैसे करें भला सफलता आलिंगन ।।

विवाह के लिए लड़की

विवाह के लिए लड़की चाहिए 
कैसी 
सुंदर हो दिखने में 
रंग भी गोरा नाक खड़ी हो,
उम्र न ज्यादा बस अभी 
यौवन की सीढी चढ़ी हो।
दुबली पतली सौम्य,सुशील
पढ़ा न हो बेटा तो क्या
लड़की खूब पढ़ी हो ।
अन्नपूर्णा हो 
हाथ लगते ही खाना हो जाये 
स्वाद से भरा
न बने कभी कम, कभी ज्यादा
बातों के लहज़े हो,
संस्करों की धनी हो
सह जाए सारे आधात
दिल से पत्थर की बनी हो ।
जो भी नियमें हो 
चाहे कोई बंधन 
मान ले आंख मूंद कर 
न लगाएं कोई अटकन
घर के अंदर ही रहे 
और निपुणता बाहर की भी हो,
जब जरूरत पड़े ,जहां जरूरत पड़े
रहे वो अडिग रहे खड़े,
दोष कोई भी हो 
किसी मे मुँह पर ताला लगाए
सबकी वाह - वाही करे
सबको सम्मान का माला पहनाए ।
घर के काम पति का ध्यान
बच्चों का ख्याल और बड़ो की सेवा करे
स्वयं की इक्षाओं और 
सपनो को दरकिनार करती जाए 
है हर किसी की आकांक्षा 
बहु के रूप में 
इंसानी जिस्म में बस रोबोट मिल जाए।।


Tuesday, June 1, 2021

आत्मबोध

खुद ही लिखनी, खुद की कहानी है,
भूत,वर्तमान, भविष्य सब 
अपनी ही जुबानी ।।
गुत्थियां सुलझानी है,जीवन के रहस्य से,
मोह में डूबा यह जग सारा,
व्यर्थ का छिछला किनारा,
पार रक भवसागर को है,
स्व के ही सामर्थ्य पर,
खुद ही उठाना है बोझ अपना
खुद ही खुद की नाव चलानी है,
खुद ही लिखनी ,खुद की कहानी है।।
हर कदम पर ज़िन्दगी ,
यह मंत्र बता गयी ,
अपने मेहनत के बल पर 
बनानी है अपनी दुनिया नई,
हर आँधी यह सिखलाती है,
बनाओ नित नीड़ नए
न जाने जीवन की आँधी में टूटने हैं कई ,
जिम्मेवारियां कंधे की सारी खुद ही निभानी है
की खुद ही लिखनी खुद की कहानी है ।।
हर रिश्ते में छुपा है छल,
आज जो तेरे अपने हैं होंगे पराये वो कल,
रोशनी में साथ तेरे है जहां सदा,
छोड़ देगी साथ परछाई भी,
आ जाये सम्मुख जब अंधेरों की आपदा,
की खुद ही गहरे काले रातों में 
उठ के दीप जलानी है ,
की खुद ही लिखनी खुद की कहानी है ।।

ये कैसा वक़्त आया है


वक़्त का कहर है,या
हम सब का ही बोया ज़हर है
है जहां में हर कोई परेशां
ये काली भयावह लम्बी 
महामारी वाली रात का,
क्या कोई सहर है ।।
एक छींक आने पर भी 
पूरा परिवार सिहर उठता था जहां,
अपनो के मौत पर भी खड़ा है कोई कहाँ,
विडंबना यह प्रकृति का दिया है,
या सब हमारे व्यवहारों का किया है,
हक़ मुखाग्नि का भी बेटों से वक़्त ने छीन लिया है ।
सियासत को दोष दें,लापरवाही कहें,
इंसान का रचा ही जैविक युद्ध कहें,
या फिर प्रकृति की तबाही कहें,
ऑक्सीजन से भरे वातावरण में भी 
लोग ऑक्सीजन के बिना मर रहे हैं,
कितना लाचार बना दिया है इस महामारी ने ईसाँ को,
अपनो की ही देख रेख न अपने कर रहे हैं,
न जाने कितनों को निगल जाएगी ये ,
पसरा है ये सन्नाटा और दुख का आलम 
न जाने कितने जीवन को बदल जाएगी ये ,
ईश्वर से यही है नित आराधन,
दूर करे यह चिंतन 
और दूर करे यह क्षण
हो विनाश इस महामारी का 
दूर हो ये लम्हा लोगो की लाचारी का,
सब फिर से हंसते खेलते
एक दूसरे के गले लग पाएं,
हमारी वो खिलखिलाती धरती 
फिर से प्रेम में हरी भरी हो जाये ।

क्या प्रेम जताया या बताया जाता है?

प्रेम तो सिर्फ कर पाने की चीज़ है, न उसे बताया न उसे जताया जा सकता है, न उसे खोया  न पाया जा सकता है, निश्चय ही, अनुभूति और निःशब्द  हो जाना ...