Saturday, June 9, 2018

एक पुरुष दहलीज़ के उस पार

दहलीज़ के अंदर हैं स्त्रियाँ
और बाहर पुरुष
जितना एक स्त्री के लिए बाहर जाना दूभर है,
उतना ही एक पुरुष के लिए अंदर आना,
बचपन मे माँ के साथ
पुरुषों की मनमानी का प्रत्यारोपण देख,
मन चाहता है,
इस लड़कपन की दहलीज पार कर जाए,
और जो भी गलत है वो कह जाए,
लेकिन वह मौन रह गया,
दहलीज के उस पार
बहन के साथ होता अन्याय देख
उसे ज्यादा हिस्सा और बहनों को कम हिस्सा पता देख,
जी चाहा न जाने कितनी बार
उठा दे आवाज़ कर डाले विद्रोह का आगाज़
पर वही दहलीज उसके कदम बाहर ही रोक लिए,
पत्नी और परिवार के बीच सामंजस्य बैठाते बैठाते
न जाने कितनी बार महसूस की ज्यादतियां
दोनों पक्षों की,
पर मौन रहा दहलीज के उस पार
कभी पत्नी,तो कभी माँ को छोड़कर बेबस और लाचार
बेटी से रहा असीम दुलार
पर रोक लेते थे उसके कदम
दहलीज के उस पार
सामाजिक सारे अचार विचार
चाहकर भी बहु को बेटी न बना पाया
इसी दहलीज ने उसे सदा
ससुर ही बनाया...
और विडम्बना यही रही
एक पुरुष की लाचारी
कोई न देख न पाया
चाहा उसने भी सब सुधार देना,
हर बार कदम अंदर की ओर बढ़ाया
पर इस दहलीज़ तक आकर खुद को रोकता गया...

सुप्रिया "रानू"

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