Sunday, October 14, 2018

उलझती रही

ज़िन्दगी के फलसफे में डूबती तरती रही,
सुलझ कर भी कई बार यूँही
उलझती रही...
उलझनों का क्या है
मौके बेमौके आते जाते रहे,
मैं मौन बैठी जीवन के खेल समझती रही,
सुलझ कर भी कई बार यूँही उलझती रही...
दो चेहरे वालों को अपना समझती रही,
गैरों को भी परखती रही,
कभी अपनी भावनाओं से हारी,
तो कभी औरों  के फरेब में अटकती रही,
सुलझ कर भी कई बार यूँही उलझती रही...
दुनिया मे रह कर भी दुनियादारी समझना,
कौन है अपना कब कौन पराया बन गया
किसे कितना प्यार दो और कितना कोई ले गया,
झूठ की इज़्ज़त और झूठ के रिश्ते
कभी झुठ का सब कुछ और सिर्फ हम अकेले पिसते,
कभी अकेले में भी महफिलें थी,
कभी  महफिलों में भी अकेले झलकती रही,
सुलझ के भी....
कोई रंग न है वफ़ा का नही धोखे का कोई रंग
कोई रंग न है अपनेपन का न ही परायेपन का कोई ढंग,
जीवन का सार इतना ही बस जियो अपनी धुन में,
जो कहे दिल की सही है करो पूरे मन मे,
उलझने आएंगी और जाती भी रहेंगी
उलझोगे तो तुम्हारा समय भावना और न जाने क्या क्या
रिश्ते,अपनापन परायापन सब खाती रहेंगी
जिओ हर पल जीवन का
और कहो हर बार यह मैं जीवन को समझती रही
महसूस करो इतना ही
ससुलझ कर भी मैं उलझती रही...
सुप्रिया 'रानू'

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