Wednesday, October 24, 2018

दरिया

बना तो डालूं मैं मन को
एक स्वक्च्छंद दरिया,
जो बातों की आवृत्ति
से तनिक भी विचलित न हो,
निर्वाह निरंतर बहता
ही रहे अपनी धुन में
पर क्या ,भरोसा
लोग बस उसकी निर्मुक्तता
और निरब्धता का आनंद लेंगे,
क्यों ये कल्पित करूँ मैं
की मल मूत्र सरीखे
अपने विचार इस उन्मुक्तता में
धो न सकेंगें... अब भला
मल मूत्र सरीखे विचार भी होते हैं,
और वो मन की दरिया में धोये भी जाते हैं,
बिल्कुल होते हैं,
कलुषित संकीर्ण मानसिकता,
खुद को बड़ा बताने की होड़ में
किसी को छोटा बना देने की मानसिकता,
खुद को सही करने की धुन में
सबको गलत ठहरा देने की मानसिकता
मल मूत्र ही तो है जो
सिर्फ गंदगी फैला सकता है,
यकीन मानिए उत्सर्जित
सारी चीजों का समुचित प्रबंधन आवश्यक है,
वैसे इन कलुषित विचारों का भी प्रबंधन
उनका जीवन से पूर्णतः बहिष्करण
सो मन को स्व्क्छंद दरिया तो बनाऊँ
पर उसपे पहरे विचारों लगाऊँ,
निर्मल निर्बाध विचारों
का दरिया मन मे यूँही निवरत बहता रहे ...
सुप्रिया"रानू"

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