वक़्त का कहर है,या
हम सब का ही बोया ज़हर है
है जहां में हर कोई परेशां
ये काली भयावह लम्बी
महामारी वाली रात का,
क्या कोई सहर है ।।
एक छींक आने पर भी
पूरा परिवार सिहर उठता था जहां,
अपनो के मौत पर भी खड़ा है कोई कहाँ,
विडंबना यह प्रकृति का दिया है,
या सब हमारे व्यवहारों का किया है,
हक़ मुखाग्नि का भी बेटों से वक़्त ने छीन लिया है ।
सियासत को दोष दें,लापरवाही कहें,
इंसान का रचा ही जैविक युद्ध कहें,
या फिर प्रकृति की तबाही कहें,
ऑक्सीजन से भरे वातावरण में भी
लोग ऑक्सीजन के बिना मर रहे हैं,
कितना लाचार बना दिया है इस महामारी ने ईसाँ को,
अपनो की ही देख रेख न अपने कर रहे हैं,
न जाने कितनों को निगल जाएगी ये ,
पसरा है ये सन्नाटा और दुख का आलम
न जाने कितने जीवन को बदल जाएगी ये ,
ईश्वर से यही है नित आराधन,
दूर करे यह चिंतन
और दूर करे यह क्षण
हो विनाश इस महामारी का
दूर हो ये लम्हा लोगो की लाचारी का,
सब फिर से हंसते खेलते
एक दूसरे के गले लग पाएं,
हमारी वो खिलखिलाती धरती
फिर से प्रेम में हरी भरी हो जाये ।
2 comments:
सब फिर से हंसते खेलते
एक दूसरे के गले लग पाएं,
हमारी वो खिलखिलाती धरती
फिर से प्रेम में हरी भरी हो जाये । काश ऐसा ही हो और वह भी जल्द।
जी आदरणीय सबकी यही शुभेक्षा है ईश्वर जल्द ही प्रार्थना स्वीकार करें ।
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