Wednesday, August 29, 2018

बैरी निंदिया

सो रहा जग सारा गहन चिर निद्रा में,
पत्ते पत्ते भी नींद से भरे
हवाओं के झकोरों से भी हिलना तक न चाहते,
चाँद भी मानो बत्ती जलाकर अलसाया सा
ठिठक गया है ऊँघ कर आसमान के एक तल पर
सितारे बाहों में बाहें डालें
टिक गए हैं एक जगह
उबासियाँ लेते जुगनू भी अब
कोई दीवार तो कोई छत से चिपक कर
टिमटिमाते टिमटिमाते रुक से गये हैं,
कुछ देर पहरा देकर अब गली
में दौड़ लगाने वाले जीव जन्तु भी
एक एक जगह लेकर सो रहे हैं,
छत से लगा पंखा भी मानो
बस बिजली के कनेक्शन से ही हिल रहा हो,
और बत्तियां सारी सिमट के सो गई हैं,
रात्रि के गहन अंधेरे में
सब अपनी अपनी थकन मिटाने को
नींद की आगोश में आ छुपे हैं,
और मेरे नयन अपलक खुले
एकटक देख रहे हैं छत की ओर
ये बैरन नींद भी न आती,
तुम्हारी यादों की दस्तक है,
जो नींद को दरवाजे के उस पार खड़ा कर रखा है
किसे कहूँ बैरी तुम्हारी यादों का
मेरी नींद को...

No comments:

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...