मूँदी आँखों मे सबसे छुपाकर,
कुछ ख्वाहिशें दफनाई थी,
मन की गीली मिट्टी में,
अपने इक्षाओं के जल से सींचा था वो जमीं,
उम्मीदों के कुछ कोंपलें आ गयी,
समय के सीने को चीरकर,
सहमी सहमी सी मैं
सोचती विचारती रही न जाने
कितने सालों तक,
कभी परिस्थितियां देखती
कभी परिवार,
कभी समाज,
कभी खुद को,
सपनो के परों को बिखराती समेटती,
न जाने ज़िन्दगी के समय कब गुजर गए,
मेहनत की रोशनी न मिल पाई उम्मीदों को
और कोंपलें जैसे खिली मुरझा भी गयी,
न जाने कितनी ऐसी हसरतें
कितने दिलों में दफन होगी
न जाने कितने सपनो के पर
खुले ही न होंगे कितनो को
फड़फड़ाने को आसमान न मिला होगा,
और न जाने कितने काट दिए गए होंगे,
कितने अभी भी सिकुड़े से
मोड़ कर रखे होंगे,
किसी दिन तो ये झिझक पाबंदियां
हटेंगी मन से और वो
उम्मीदों का पाखी
सपनो के पर फड़फड़ा कर उड़ेगा
उन्मुक्त गगन में बेबाक बेपरवाह...
सुप्रिया "रानू"
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