जेठ से तपन से सूखी प्रकृति,
समंदर भी अब खौल रहा,
नदियों का जल सुख चला है,
धरती का आनन जल रहा,
बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे,
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे...
खग पखेरू सब त्राहि त्राहि,
पौधों का भी हाल बुरा,
जंगल का जग है सूना-सूना,
मोर का है प्रेम अधूरा,
सबको तृप्त कर जाने को
वर्षा को बुलाने को,
बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे,
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे,
हम मनुष्य भी लाख संसाधन जुटा लें,
तपती गर्मी से भले एसी कूलर बचा लें,
पर अंतर्मन को तृप्त करने को ,
मन मे उमंग को भरने को,
चाहिए सावन की ही फुहार रे,
बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे..
बारिश में भींगते उछलते बच्चे,
सौंधी मिट्टी की खुशबू,
धरती के नीचे दबे जीवों
को धरती रही पुकार रे,
मेढक की टर्र टर्र और
और झींगुर के गीत पुकार रे,
बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे,
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे
धुल जाए यह द्वेष ईर्ष्या,
उतरे रंग जो नफरत का,
वैमनस्य जो फैली है अपनी चादर ये,
प्रेम का रंग बरसाए मेघा,
तनमन सब रंग जाए रे,
भींगे हर मानव का मन
हैवानियत सब धूल जाए रे
बरसाने को अम्बर से प्रेम का रस फुहार रे
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे..
सुप्रिया"रानू"
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