Saturday, July 21, 2018

तुम्हे ढूंढती हूँ

खुले आसमान तले
बिखरी चांदनी में,
माध्यम चलती महकती हवाओं में,
खिले रातरानी के लदी डालियों के साथ
बरसते मोती स्वरूपी ओश की बूंदों के पास

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ,

समुन्दर के किनारे आती जाती लहरों के साथ
चमकते घुलते रेत के कणों के साथ,
बने घरौंदों की ढह जाने वाली दीवारों के पास,
टूटे जुड़े शिपियों और शंख के पास,
लहरो के ऊपर ऊपर आने वाली ठंडी हवाओं के साथ,

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ,

बरसते सावन की बूंदों में,
कड़कती बिजली के डर के साथ
मिट्टी की सौंधी खुशबू में,
झूमते भीगते पेड़ पौधों के साथ,
प्रकृति के अद्भुत संगीत में

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ,

तन्हाइयों में अक्सर जब खामोश रहती हूँ,
अपनी मन की व्यथा न शब्दों में कहती हूँ,
बेशक हैं बहुत सारे हमराज
पर तुम्हारी कमी किसी से न कह पाती हूँ,
मन जब हार जाता है
और शांत होकर बस तुम्हारे पास रहना चाहता है,

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ

दे दूं चाहे जितनी वजह जितनी उपमाएं
सच तो ये हैं कि बेवजह भी

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ...

सुप्रिया "रानू"

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