पहिल हिंडोला माँ के अँचरा,
दोसर पिता के कान्हा रहे,
तीसर हिंडोला भाई के हाथ,
चौथा हिंडोला बहन के साथ,
अब त जीवन भइल हिंडोला
सुख दुख के बीच डोलतानी,
बचपन के सखियन के साथे
बाग बगइचा में झुमल गावल,
सावन के महीने में
हिंडोला पे झुलल,
और बदरा के साथ भींजल
सब बिसर गइल अब नइहर में ही,
अब त जीवन हिंडोला हो गइल....
आजीविका के साधन में मन भइल हिंडोला,
इ फॉर्म और उ फॉर्म,
इहाँ आरक्षण उँहा मार,
मन हार हार के जीतल बा,
जानेला हमार हृदय ही का का एकरा पर बीतल बा,
अब त जीवन हिंडोला हो गइल...
जीवन के आन्नद और जीवन के दुखन में भी,
मन आपन झूला झुलेला,
केकरा अंदर में केतना दुख बा,
ई भेद कहाँ अब खुलेला,
सावन के पावन महीना में
आयी सब भूल बिसार के,
मन आनंदमयी कर ली जा,
जैसे तीज त्योहार के,
आयी फिर से हिंडोला लगो आम के बगइचा में,
बड़ बूढ़ बच्चा लड़की नारी सब झूले
भूल के जीवन के इ हिंडोल के....
सुप्रिया "रानू"
(अँचरा - आँचल, भींजल -भीगना,बिसर - भूलना)
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