जिसके हाथों में होनी थी किताबें,
वो माँज रही बर्तन हर घर मे
पढ़ के बनना था उसे भी डॉक्टर,
क्या हुआ जो बिखर गया
परिस्थितयों की चोट से
महज़ ख्वाब ही तो था...
पटाखे का कारखाना हो,
या चाय रेस्तरां में बर्तन धोते नन्हे हाथ
या किसी के घर मे सबकी जरूरतों
की चीजें पहुंचते हाथों हाथ,
पढ़ के बनना था
किसी को इंजीनियर,
किसी को पायलट और
कोई सरहद पे जाना चाहता था,
क्या हुआ जो बिखर गया
परिस्थितियों की चोट से,
महज़ ख्वाब ही तो था,
उसकी भी ख्वाहिश थी,
अपनी पहचान की,
अपने आत्मसम्मान की,
अपने नाम आने बुते
पर पाए कुछ अपनों की,
क्या हुआ जो वो बंध गयी
चूड़ी सिंदूर मंगलसूत्र से
क्या हुआ जो बिखर गया,
परिस्थितियों की चोट से
महज़ ख्वाब ही तो था..
करनी थी उच्चस्तरीय पढ़ाई,
कुछ दिन और पढ़ना था,
पैसो से कोई मोह न था,
फिर भी घर की जरूरतों
ने नौकरी लगवा दी
क्या हुआ जो बिखर गया
परिस्थिति की चोट से
महज़ ख्वाब ही तो था,
न जाने कितने ऐसे दबे
ख्वाब कोई तबके पे फाइलों में दबा है,
कोई ख्वाब रोटियो के साथ रोज सेंका जाता है,
कितने ख्वाब चूड़ियों की तरह हाथों की बेड़ियां बन गए,
और न जाने कितने ख्वाब उन तरसती आंखों में
सदा झलकते हैं जब बर्तन मांजते हाथ
किताबों को निहारते हैं,
एक पहल करनी है बस ऐसे सारे दबे
अधमरे ख्वाबों को मौको का ऑक्सीजन देना है,
और उन्हें जीवित करना है आज़ाद करना है
हमेशा के लिए खुले
आसमान में उड़ने को
और तब बन जाएंगे जीवन
ये महज़ ख्वाब हमारे...
सुप्रिया "रानू"
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