Wednesday, August 1, 2018

मैं,मैं कहाँ रह जाती

मैं सिर्फ मैं सोचूँ
तो स्वार्थी कहलाऊँ,
मैं,तुम और मैं सोचूँ तो
प्रेम में अंधी हो जाऊं,
मैं सिर्फ अपना परिवार देखूं,
तो अव्यवहारिक हो जाऊं,
मैं परिवार के दायरे बढाऊँ,
तो सामाजिक कहलाऊँ,
न जाने कितनी परिभाषाएं
और उन परिभाषाओं के
न जाने कितने आलेख
कितनी सीमाएँ, कितने नियम
और न जाने कितनी विडम्बनाएं,
कितनी सोच कितने विचार
न जाने मेरे एक कदम
पर टिकी कितनी टिप्पणियां,
मैं चलूं भी न तो कदम
के चर्चे कहाँ तक पहुंच जाते हैं,
शायद यही है दुनिया,
और दुनिया के लोग
जो आपको कभी आपकी तरह नही,
खुद की सोच से परिभाषित करते है,
और ऐसे में मैं मैं भी नही बन पाती
जो बनना चाहती
न वो ही राह जाती,जो लोगो को है भाती,
फिर बताओ मैं,में कहां रह जाती...
सुप्रिया " रानू"

No comments:

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...