दर्द लफ़्ज़ों में बयाँ हो जाये तो,
कसक ही क्या रह जायेगी,
कांटो को अलग कर दें जो फूलों से,
शनाख्त गुलशन की क्या रह जायेगी,
गैरों की परवाह कहाँ ,।
इस दौर में अपना भी अपना जो हो जाये,
तो गैरत रिश्तों की क्या रह जायेगी
लालच के इस समंदर में,
हो जाये संतुष्टि जिसे,
शोहबत उसे फरेबी की क्या रह जायेगी,
वफ़ा के बदले जफ़ा न मिले तो
फिर वफाओं की कीमत ही क्या रह जायेगी
शिकायतों का दौर ये थम जाए जो,
हम साथ मिलके गर रह जाएं तो,
इस दौर में इंसान की नीयत ही क्या रह जायेगी,
हम जिसे अपना माने, उससे दगा न मिले,
कमबख्त फिर हमारी किस्मत ही क्या रह जायेगी
सब खेल कर के भी इंसान हार जाता है
कभी खुद से कभी औलाद से,
सब पा ही जाएगा इंसान
अपनी बेताबी से ही
फिर कहो उसकी शख्शियत ही क्या रह जाएगी ।
सुप्रिया "रानू"
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