Friday, June 29, 2018

मंज़र हमारे प्यार का..

आइने  की न जरूरत पड़े,
तुम्हारी आँखों मे ही सजती रहूं,
सौ तारीफें दुनिया की एक ओर,
तुम्हारी नजर जो मुझ पर ठहर जाए,
उसे ही अपलक देखती रहूं,
तुम कहो न कहो
मैं प्यार के तराने गुनगुनाती रहूं,
तुम्हारी खामोशियों में भी दिखे
प्यार के रंग बेशुमार सा,
ऐसा ही लम्हा हो हमारे ऐतबार का..
ताउम्र रहे खुशनुमा
मंज़र हमारे प्यार का...

थाम के हाथों को हाथों में
संग तुम्हारे चलती रहूँ,
बन के राह तुम्हारे सफर में
गुजरती रहूँ,
तुम उड़ो शोहरत के आसमान पर,
मैं जमीं पर रहकर भी तकती रहूँ,
दूर होक भी जुड़े रहे हम एक दूजे से
ऐसा ही हों लम्हा हमारे इंतज़ार का,
ताउम्र रहे खुशनुमा
मंज़र हमारे प्यार का...

तुम बने रहो अडिग अचल
सागर लिए रहो अपना खारा जल,
मैं घूम घाम कर सारा जग,
समेट कर सारा मीठा जल
समाती रहूँ तुम्हारे आगोश में,
खोकर भी अपना अस्तित्व तुमसे मिलकर,
रखूं अपना प्रेम बरकरार,
अनकहे शब्दों में भी,
हो जाये लम्हा हमारे इज़हार का,
ताउम्र रहे खुशनुमा
मंज़र हमारे प्यार का...

सुप्रिया "रानू"

Saturday, June 23, 2018

अंकुर प्रेम का..

उमंगो की धरा पर,
इच्छाओं के बीज पडे होंगें
सपने बुनते नयन
कितनी रात जगे होंगें,
नूतन भविष्य के
एक - एक तिनके
रखें होंगे सहेज कर,
तब जाकर हृदय में,
पनपा होगा अंकुर प्रेम  का,
त्याग के भाव,
समर्पण की श्रद्धा,
एक दूसरे के लिए
कुछ भी कर गुजरने की ललक जगी होगी,
थोड़ी अगन इधर ,थोड़ी अगन उधर भी लगी होगी,
मन के मंदिर में
स्थापना हुई होगी
किसी की जो देवतुल्य दिखते होंगे,
तभी जाकर हृदय में पनपा होगा
अंकुर प्रेम का...
संग हंसने संग रोने के वादे,
एक दूसरे का सुख दुख बांटने का जज़्बा,
एक दूसरे के कदम से कदम मिला कर चलने के कसमे,
एक दूसरे के लिए खुद को भुला देना
एक दूसरे में ही खुद को पा जाना,
होंगे न जाने कितने अंतर्मन के सागर की लहरों के झकोरे,
न जाने कितने उठते दबते ज्वर
तब जाकर हृदय में पनपा होगा
अंकुर प्रेम का....

सुप्रिया "रानू"

Monday, June 18, 2018

ईदी

इस बार ईदी खुदा से चाहिए,

बस थोडी सी रहमत,
कि इंसानियत को मिल जाए थोडी सी अज़मत....
ये जो खून का सिलसिला है
थम जाए अब,
ये जो संकरे से हैं ख्याल
थोडे मुफासिल हो जाएं...

बस ये दीवाली से दीप जलें,
और सेवईयों का जाय़का एकसाथ हो,
हरा,लाल,गेरूआ,सब रंग जाएं
एक ही रंग,

ये जो दौर है जहाँ,
मजहब बताता है,
कि दरिंदगी किसकी है,
ये जो रूत है जहाँ यकीन
इंसान की नीयत से
ज्यादा उसके बंदगी के तरीकों से है,
बस ये थम जाए,

ये जो रूहों से उपर
मज़हब के परचम  हैं।
बस वो थोडा झुक जाए,
इंसान, इंसान समझ सके
एक दूसरे को बस इतनी  समझ आ जाए,

इतनी सी नेमत इस ईद मुझे मिल जाए...

 

Sunday, June 17, 2018

पापा

आज पितृ दिवस है,
पर पिता एक दिवस तक सीमित न है,पिता तो पुरा जीवन  है...
बस अब तक के छोटे संस्मरण शब्दों मे पिरो दिया...

पापा आप मेरे लिए....
मूसलाधार बारिश मे भीगती
एक नन्हीं चिडिया के लिए पक्की छत
लडखडाते कदमों की
सहारे की उंगलियां
ना पहुंच सकने वाली हर ऊँचाई
के लिए दृढ कंधों का आसरा,
सुबह की प्यार से
माथा सहलाकर जगाने का अहसास,
तो शाम को बाजार से आए मीठे पेडे,
मेरी परीक्षाओं मे सुबह मेरे साथ जगने वाली आँखे
तो शाम तक मेरे चेहरे पर तैरती मुस्कान
मेरी असफलताओं मे भी मुझ पर नाज,
तो सफलताओ मे गर्व
माँ की अनुपस्थिति मे थोडी टेढी
मगर गरम रोटियाँ,
थोडे बुखार मे भी मेरे माथे पर
ठंडी पट्टीयां,और बिस्किट के कितने पैकेट,
अक्सर मेरे सोने का नाटक,
और आपकी गोद मे अपने बिस्तर तक पहुंचने की साजिश
माँ के साथ खट्टी मीठी नोकझोंक,
तो कभी आपकी साजिश
मेरे हाथ की चाय पीने के लिए
माँ के चाय की शिकायत,
मेरी हर परीक्षा को सफल करना ही पैमाना न बनाना
अपितु उसे एक अनुभव गिनना,
और मेरी हर हार को
एक सीख बताना,
माँ के बाद मेरी दोगुनी चिंता करना
मैं हूँ न हमेशा ये आसरा देना
सामाजिक परंपरा मे मुझे दान कर के भी
मेरे हर पल की चिंता..
पापा आप जनक भी हैं,पालक भी,
सरंक्षक भी,
मेरी हर ईक्षा की पूर्ति भी..

सुप्रिया "रानू"

Sunday, June 10, 2018

उसकी शख्शियत

दर्द लफ़्ज़ों में बयाँ हो जाये तो,
कसक ही क्या रह जायेगी,

कांटो को अलग कर दें जो फूलों से,
शनाख्त गुलशन की क्या रह जायेगी,

गैरों की परवाह कहाँ ,।
इस दौर में अपना भी अपना जो हो जाये,
तो गैरत रिश्तों की क्या रह जायेगी

लालच के इस समंदर में,
हो जाये संतुष्टि जिसे,
शोहबत उसे फरेबी की क्या रह जायेगी,

वफ़ा के बदले जफ़ा न मिले तो
फिर वफाओं की कीमत ही क्या रह जायेगी

शिकायतों का दौर ये थम जाए जो,
हम साथ मिलके गर रह जाएं तो,
इस दौर में इंसान की नीयत ही क्या रह जायेगी,

हम जिसे अपना माने, उससे दगा न मिले,
कमबख्त फिर हमारी किस्मत ही क्या रह जायेगी

सब खेल कर के भी इंसान हार जाता है
कभी खुद से कभी औलाद से,
सब पा ही जाएगा इंसान
अपनी बेताबी से ही
फिर कहो उसकी शख्शियत ही क्या रह जाएगी ।

सुप्रिया "रानू"

Saturday, June 9, 2018

एक पुरुष दहलीज़ के उस पार

दहलीज़ के अंदर हैं स्त्रियाँ
और बाहर पुरुष
जितना एक स्त्री के लिए बाहर जाना दूभर है,
उतना ही एक पुरुष के लिए अंदर आना,
बचपन मे माँ के साथ
पुरुषों की मनमानी का प्रत्यारोपण देख,
मन चाहता है,
इस लड़कपन की दहलीज पार कर जाए,
और जो भी गलत है वो कह जाए,
लेकिन वह मौन रह गया,
दहलीज के उस पार
बहन के साथ होता अन्याय देख
उसे ज्यादा हिस्सा और बहनों को कम हिस्सा पता देख,
जी चाहा न जाने कितनी बार
उठा दे आवाज़ कर डाले विद्रोह का आगाज़
पर वही दहलीज उसके कदम बाहर ही रोक लिए,
पत्नी और परिवार के बीच सामंजस्य बैठाते बैठाते
न जाने कितनी बार महसूस की ज्यादतियां
दोनों पक्षों की,
पर मौन रहा दहलीज के उस पार
कभी पत्नी,तो कभी माँ को छोड़कर बेबस और लाचार
बेटी से रहा असीम दुलार
पर रोक लेते थे उसके कदम
दहलीज के उस पार
सामाजिक सारे अचार विचार
चाहकर भी बहु को बेटी न बना पाया
इसी दहलीज ने उसे सदा
ससुर ही बनाया...
और विडम्बना यही रही
एक पुरुष की लाचारी
कोई न देख न पाया
चाहा उसने भी सब सुधार देना,
हर बार कदम अंदर की ओर बढ़ाया
पर इस दहलीज़ तक आकर खुद को रोकता गया...

सुप्रिया "रानू"

विडम्बना की दहलीज पर

एक बेटी खड़ी है,
विडम्बना की दहलीज पर
जिसे इस समाज ने बनाया
पोषित किया और अब तक जीवित रखा,
पिता ने दान कर दिया है,उसका
सो सक्षम भी अक्षम है,
जिसने चलना सिखाया
उसे अपने हाथों का सहारा नही दे सकती
क्योंकि ससुराल ही उसका घर है,
जिसने जीवन दिया
उसे अपने जीवन का कुछ हिस्सा न दे सकती
क्योंकि सिर्फ कन्यादान से
उसका जीवन किसी और का हो जाता है,
किसी घर की बहू मात्र बन जाने से
बेटी का हर दायित्व खो जाता है,
उसका मायके आना दो दिन का हो जाता है,
एक लाल आभे के लिए,
उसका दायित्वबोध अस्तित्वहीन हो जाता है,
है,अपवाद भी इसी समाज मे,
पर सोच समझ और सदियों से
चली आ रहीं परम्पराएँ हैं,रास्ते की बाधा,
कैसा जीवन है,बेटियों का,
बँट जाता है,मायके और ससुराल में आधा..
सुप्रिया "रानू"

Tuesday, June 5, 2018

पर्यावरण

विश्व पर्यावरण दिवस की शुभकमनाएँ दूँ या
प्रकृति पर हुए प्रकोप की व्यथा कहूँ,हम इससे बने हैं और ये हमसे ही है सब जान समझकर भी अपनी सुविधाओं का अंधाधुंध विस्तार करने के क्रम में हम इस कदर नुकसान पहुंचा रहे जिसकी व्याख्या मुश्किल है,
जितना मैने महसूस किया समझा है यहां व्यक्त करने की कोशिश कर रही,

परि + आवरण = पर्यावरण
हमारा बाह्य आवरण
जैसे हमारी त्वचा..
कभी इसे खुद के शरीर से छीलकर हटा दीजिये,
फिर महसूस कीजिये दर्द की अनुभूति,
जो हम दे रहे हैं प्रकृति को...
जो हमे तृप्त करने को दे शीतल जल
उसे हम प्लास्टिक गंदगी और न जाने
कितनी दूषित चीजों से जूझने वाला कल

अपने घर के लिए कर रहे हो
उन निरीह जानवरों को बेघर,
स्वार्थ की सीमा न तोड़ो,
कम से कम उपयोग किया जल
तो भू जल के लिए साफ कर के छोड़ो,
यह हम मानवों की लायी त्रासदी है,
न धरा,न आसमान ,न जल,न वायु,
कुछ भी शेष न बचा है, तुम्हारे प्रोकोपो से,
ध्रूवों पर जमी बर्फ तक पिघला रहे हो,
अंधाधुंध मकानों को बनाकर देखो
बरसो से जमे पर्वतों को भी हिला रहे हो,
प्रकृति सहते सहते अब जाके कह रही है,
अब दे रही है कुछ सज़ाएं जो चिरकाल से सह रही है,
सूरज आग उगल रहा है,
धरती उबल रही है,
चीखकर रो भी न सकते उन पेड़ों को अंधाधुंध काट रहे हो,
बिना साफ किये कारखानों की धुआँ में
सैकड़ों बीमारियां बाँट रहे हो,
प्लास्टिक से भर दिया है जमीन
न सांस ले पाती है ये धरा,
न जल में बेकल मछलियाँ,
प्लास्टिक और समुद्रों में रिसने वाले तेल,
कर रहे हैं समुद्री जीवन से खेल,
जो हो दाता उसे ही मार रहे हो
ऐसी भी क्या प्रगति जो,
अपना स्वच्छ आसमान और जमीन हार रहे हो,
बन्द कर दो अब ये कोहराम,
दो धरती को थोड़ा आराम,
जितने पेड़ काटो उससे दुगुना लगाओ,
अपने साथ साथ जानवरों का भी घर बसाओ,
अपनी सुविधाओं के साथ थोड़ा ध्यान
कचरों की सफाई पर भी दो,
कारखानों से धुआं और जल साफ कर के दो,
प्लास्टिक को न कर के चलो वही,
पुरानी माँ दादी के हाथ के बने रंग बिरंगे
कपड़ों वाले थैले अपनाएं,
जल में न डालें कचरा मछलियों को जीने
का माहौल बनाएं,
करें वायु प्रदूषण को कम ,
रहने दे हमारा ऊपर ओजोन का आवरण,
बहुत खूबसूरत हैं ध्रुवों पर जमी
सफेद दूधिया बर्फ उनकी सुंदरता बरकरार रहने दे,
आओ हवाओं को पौधों के टहनियों के संग बहने दे,
नदियों को रखें स्वच्छ जैसे गंगा उतरी है गंगोत्री में,
कचरा घर का हो या अस्पताल या सामुदायिक जगहों का,
कर के उनका उचित प्रबंधन ही करें उनका विलयन...
आओ हाथ से हाथ मिलाएं
धरा स्वर्ग है अपनी इसे वापस स्वर्ग ही बनाएं,
एक एक कर के भी अगर हम एक कदम बढ़ाएं,
यकीन मानिए,
हम और आप मिलकर ही
यह पर्यावरण स्वच्छ बनाएं..
आओ लेते हैं एक प्रण,
बचा के रखेंगे अपनी धरा का जीवन..

सुप्रिया "रानू"

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...