Saturday, July 28, 2018

किस्मत का खेल

कोई भरपेट खाकर भी
अनाज फेंक देता है,
कोई पाता ही नही
पेट भर पाने को भी अनाज,
मेहनत की कमी कहें या
सितारे बेमेल हैं,
या फिर ये कहें कि

ये किस्मत का खेल है।

कोई हर रोज फेंक देता है,
एक कपड़ा पहन कर,
किसी के पास तन ढंकने
को एक ही मिली चादर है,
कोई बैठ के ए.सी. में भी पसीने से तर है,
कोई बैठा कड़ी धूप में बेघर है,

मेहनत की कमी कहें
या सितारे बेमेल हैं,
या फिर ये कहें कि

ये किस्मत का खेल है।

हजारों मकान में भी
न जगह बन पाई है कुछ जरूरतमंदों की,
यहां बस पैसे का ही खेल है,
कोई सड़कों पे घर बना के गुजर कर रहा
कोई घरों का ही व्यापार करता है,
ये जो असमानताओं का दृश्य है,

मेहनत की कमी है,
या सितारे बेमेल हैं,
य फिर ये कहें

ये किस्मत का खेल है।

कहते हैं तुम दाता हो,
सबके पिता हो,
क्या तुम भी किस्मत में ही यकीन रखते हो,
तुम्हारी पत्थर की मूरत भी दूध से नहलाई जाती है,
और बच्चों का मुँह पानी से पोंछ
कर उनके बचपन बिताई जाती है,

मानवों के बस का तो नही ये
भेद मिटा पाना
आ जाओ इस सावन तुम ही
खुद को अर्पित दूध ही पिला दो
फुटपाथों अर बिलखते बच्चों को,
और बता दो हम इंसानो को

ये तकदीर भी तदबीर से बनती है,
हाथ की ताकत को ही किस्मत भी साथ देती है,
जी भर के कर लो अपनी खुद्दारी का इस्तेमाल
दे देगी किस्मत भी हीरा अपनी झोली खंगाल,

चलो इस भेद को मिटा डालें,
उन बदक़िस्मतों को भी
अब खुशकिस्मत बना डालें,

और तब कहें
न मेहनत की कमी
न सितारे बेमेल हैं,
हम सब हैं एक 
और ईमान है एक
हम सबके किस्मत के
एक ही खेल हैं...

सुप्रिया "रानू"

Saturday, July 21, 2018

जीवन हिंडोला हो गइल

पहिल हिंडोला माँ के अँचरा,
दोसर पिता के कान्हा रहे,
तीसर हिंडोला भाई के हाथ,
चौथा हिंडोला बहन के साथ,

अब त जीवन भइल हिंडोला
सुख दुख के बीच डोलतानी,

बचपन के सखियन के साथे
बाग बगइचा में झुमल गावल,
सावन के महीने में
हिंडोला पे झुलल,
और बदरा के साथ भींजल
सब बिसर गइल अब नइहर में ही,

अब त जीवन हिंडोला हो गइल....

आजीविका के साधन में मन भइल हिंडोला,
इ फॉर्म और उ फॉर्म,
इहाँ आरक्षण उँहा मार,
मन हार हार के जीतल बा,
जानेला हमार हृदय ही का का एकरा पर बीतल बा,

अब त जीवन हिंडोला हो गइल...

जीवन के आन्नद और जीवन के दुखन में भी,
मन आपन झूला झुलेला,
केकरा अंदर में केतना दुख बा,
ई भेद कहाँ अब खुलेला,
सावन के पावन महीना में
आयी सब भूल बिसार के,
मन आनंदमयी कर ली जा,
जैसे तीज त्योहार के,

आयी फिर से हिंडोला लगो आम के बगइचा में,
बड़ बूढ़ बच्चा लड़की नारी सब झूले
भूल के जीवन के इ हिंडोल के....

सुप्रिया "रानू"
 
(अँचरा - आँचल, भींजल -भीगना,बिसर - भूलना)

तुम्हे ढूंढती हूँ

खुले आसमान तले
बिखरी चांदनी में,
माध्यम चलती महकती हवाओं में,
खिले रातरानी के लदी डालियों के साथ
बरसते मोती स्वरूपी ओश की बूंदों के पास

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ,

समुन्दर के किनारे आती जाती लहरों के साथ
चमकते घुलते रेत के कणों के साथ,
बने घरौंदों की ढह जाने वाली दीवारों के पास,
टूटे जुड़े शिपियों और शंख के पास,
लहरो के ऊपर ऊपर आने वाली ठंडी हवाओं के साथ,

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ,

बरसते सावन की बूंदों में,
कड़कती बिजली के डर के साथ
मिट्टी की सौंधी खुशबू में,
झूमते भीगते पेड़ पौधों के साथ,
प्रकृति के अद्भुत संगीत में

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ,

तन्हाइयों में अक्सर जब खामोश रहती हूँ,
अपनी मन की व्यथा न शब्दों में कहती हूँ,
बेशक हैं बहुत सारे हमराज
पर तुम्हारी कमी किसी से न कह पाती हूँ,
मन जब हार जाता है
और शांत होकर बस तुम्हारे पास रहना चाहता है,

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ

दे दूं चाहे जितनी वजह जितनी उपमाएं
सच तो ये हैं कि बेवजह भी

मैं अक्सर तुम्हे ढूंढती हूँ...

सुप्रिया "रानू"

Wednesday, July 18, 2018

मैं भी उड़ती

तुम बन पाते जो मेरा आसमान
तो मैं भी उड़ती,
तुम बन पाते जो चट्टान तो
उड़ती हवा बनके भी
तुम्हारे पास ठहरती,
तुम बन पाते जो समंदर
बनके नदी तुम्हारी बाँहो में बिखरती
तुम बन पाते जो मेरा श्रृंगार जेवर
तुम्हे अंग अंग में पहनती,
तुम बन पाते जो चाँद,
चांदनी बन के गगन पर पसरती
तुम बन पाते जो मेघ
तो बन के बून्द मैं धरा पर बरसती,
तुम बन पाते जो भँवरा,
कुसुम सी किसी बाग में खिलती,
तुम बन पाते जो बट वृक्ष,
बनकर बेल तुमसे लिपटती,
तुम घुल जाते जो हवाओं में तो,
सांसों में हर पल तुम्हे भरती,
तुम बन जाते जो मेरी नीव
तो एक सुनहरा घर बनती,
तुम बन पाते जो साथ मेरा
आजीवन सुख दुख में संग चलती,
बन पाते जो मेरे नैनो के अश्रु
तो दुख कोई भी हो बह जाती ,
बन पाते सच मे अर्धांग तो
गर्व से मैं भी अर्धांगिनी कहलाती,
पर तुम झूठे अहम,झूठे आडम्बरों
में डूबे रहे और जड़ बन बैठे खुद
को मर्द बता कर
और मैं वही दमित स्त्री बनूँ या
बन जाऊं सामाजिक वक्तव्यों का ठिकाना,
की संस्कार ही नही दिया इसे आया ही नही निभाना,
तुम ढल जाते तो मैं भी ढल जाती
तुम थोड़ा भी खड़े हो पाते तो
यकीन मानो पूरा जीवन मे चलते जाती,
पल भर की ही हों यह कहानी
पर छुपी होगी हर स्त्री की अनकही जुबानी,
परस्पर है प्रेम एकतरफा त्याग इसे बचा नही सकता,
प्रेम है सच्चा तो पिघलना आता है
अकड़ना कोई सिखा नही सकता....

Saturday, July 7, 2018

मेघ मल्हार

जेठ से तपन से सूखी प्रकृति,
समंदर भी अब खौल रहा,
नदियों का जल सुख चला है,
धरती का आनन जल रहा,
बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे,
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे...

खग पखेरू सब त्राहि त्राहि,
पौधों का भी हाल बुरा,
जंगल का जग है सूना-सूना,
मोर का है प्रेम अधूरा,
सबको तृप्त कर जाने को
वर्षा को बुलाने को,
बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे,
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे,

हम मनुष्य भी लाख संसाधन जुटा लें,
तपती गर्मी से भले एसी कूलर बचा लें,
पर अंतर्मन को तृप्त करने को ,
मन मे उमंग को भरने को,
चाहिए सावन की ही फुहार रे,
बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे..

बारिश में भींगते उछलते बच्चे,
सौंधी मिट्टी की खुशबू,
धरती के नीचे दबे जीवों
को धरती रही पुकार रे,
मेढक की टर्र टर्र और
और झींगुर के गीत पुकार रे,

बरसाने को अम्बर से रस फुहार रे,
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे

धुल जाए यह द्वेष ईर्ष्या,
उतरे रंग जो नफरत का,
वैमनस्य जो फैली है अपनी चादर ये,
प्रेम का रंग बरसाए मेघा,
तनमन सब रंग जाए रे,
भींगे हर मानव का मन
हैवानियत सब धूल जाए रे
बरसाने को अम्बर से प्रेम का रस फुहार रे
आओ गाएँ मेघ मल्हार रे..

सुप्रिया"रानू"

Wednesday, July 4, 2018

सपनो के पर

मूँदी आँखों मे सबसे  छुपाकर,
कुछ  ख्वाहिशें दफनाई थी,
मन की गीली मिट्टी में,
अपने इक्षाओं के जल से सींचा था वो जमीं,
उम्मीदों के कुछ कोंपलें आ गयी,
समय के सीने को चीरकर,
सहमी सहमी सी मैं
सोचती विचारती रही न जाने
कितने सालों तक,
कभी परिस्थितियां देखती
कभी परिवार,
कभी  समाज,
कभी खुद को,
सपनो के परों को बिखराती समेटती,
न जाने ज़िन्दगी के समय कब गुजर गए,
मेहनत की रोशनी न मिल पाई उम्मीदों को
और कोंपलें जैसे खिली मुरझा भी गयी,
न जाने कितनी ऐसी हसरतें
कितने दिलों में दफन होगी
न जाने कितने सपनो के पर
खुले ही न होंगे कितनो को
फड़फड़ाने को आसमान न मिला होगा,
और न जाने कितने काट दिए गए होंगे,
कितने अभी भी सिकुड़े से
मोड़ कर रखे होंगे,
किसी दिन तो ये झिझक पाबंदियां
हटेंगी मन से और वो
उम्मीदों का पाखी
सपनो के पर फड़फड़ा कर उड़ेगा
उन्मुक्त गगन में बेबाक बेपरवाह...

सुप्रिया "रानू"

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...