Saturday, November 24, 2018

मंज़र रूमानी हो गया

ठंड की गुनगुनी से धूप की तरह
छुवन तुम्हारी
और गरमाती शॉलों
की तरह आलिंगन
साथ तुम्हारा मिला क्या,
सब साथ बेमानी हो गया,
तुम्हारी आहटों से ही देखो
कैसे मंज़र रूमानी हो गया..
खिल गए पीले टहटहाते फूल
हरी पतियों के बूटों पर,सरसो के,
मूंगफलियों के दानों
की मिठास अब भी वही है
जैसे रस घुला हो बरसो के,
कोहरो ने जबसे घर बना डाला
है जमीन के आंगन में 
आलम धरा का सारा आसमानी हो गया
तुम्हारी आहटों से ही देखो
कैसे मंजर रूमानी हो गया...
घुल गए मेरे और घुल गए तुम्हारे
सारे विचार आपस मे
ज्यों मक्खन घुल हो सरसो के साग में,
और पक गए हमारे रिश्ते
वक़्त की आंच पे
सोंधी मक्के की रोटी की तरह
मैं और तुम और हमारा साथ
मानो एक रंगीन कहानी हो गया,
तुम्हारी आहटों से ही देखो
कैसे मंजर रूमानी हो गया...
मैं तुम्हारी और तुम मेरे
गुड़ की डली बने रहना
मध्यम मध्यम से
एक दूसरे के घुले रहना 
घोलके मिठास सी एक दूसरे में डूबे रहना
देखो तुम्हारे प्यार के अलाव में
तप के मेरे जीवन का हर हिस्सा
जैसे सिहरते ठंड में गरम पानी हो गया
तुम्हारी आहटों से ही देखो
कैसे मंज़र रूमानी हो गया...
ठंड की गुनगुनी धूप की तरह छुवन तुम्हारी....
सुप्रिया"रानू"

Friday, November 16, 2018

अतिथि ही रह गयी

सुनती आयी हूँ बचपन से ही,
ससुराल ही लड़की का घर होता है,
मायका तो कुछ दिन का रैन बसेरा...
लेकिन यथार्थ भिन्न है इन बातों से,
शब्दों में लिख रही मैं हर वो
भाव , छिन्न है हर स्त्री जिन आघातों से,

घर मेरा है तो फिर इसमें
मेरे मायके से आये सामान ही क्यों हो,
घर मेरा है तो फिर मेरे घर मे मुझे
सारा बोरिया बिस्तर लेके आने की क्या जरूरत,
घर मेरा है तो फिर सभी रिश्तेदारों के तोहफे
मेरे रैन बसेरे के क्यों आएं,
घर मेरा है तो फिर क्यों मैं एक कमरे में सिमट जाऊँ,
घर मेरा है तो फिर क्यों मैं
अपनी पसंद का खाना भी न पका पाऊँ,
घर मेरा है तो क्यों मेरी जिम्मेवारी निभाने के
सारे नियम कड़े हो,
बहु हूँ, और घर मेरा इसलिए थक
कर भी हर पल मेरे पैर खड़े हो,
मेरी कोई इक्षा न हो
बाकी सब जिद पे अड़े हो,
घर मेरा ही तो है फिर क्यों मैं
रोटी बनाते वक्त भी पानी पीऊं तो हाथ धुलु,
घर मेरा ही है तो फिर क्यों मैं सबसे आखिर में खाऊँ,
घर मेरा ही है फिर भी क्यों मैं अपने मायके
अनुमति लेकर जाऊँ,
घर मेरा ही है फिर क्यों मैं अपने सारे सपने
चूल्हे चौके कपड़े बर्तन में झोकूँ,
घर मेरा ही है फिर क्यों मैं सारी में बंध के रह जाऊँ,
आजीवन निस्वार्थ और बिना किसी हिचक के सेवा दूँ,
सच तो बस इतना है कि
घर मेरा है फिर भी हर पल
इस घर मे मैं खुद को अतिथि ही नज़र आऊं...
ज़माना बढ़ा है आगे चीजें बदल भी गयी हैं,
पर सूक्ष्मता से देखिए
अभी भी कितने घरों की बहुएं
उस घर मे अतिथि ही हैं...
उम्र ढला, समय बदला, मौसम बदले
सूरज उगा और  ढला,
पर कुछ हिस्सों में कुछ न बदला,
बेशक लड़कियां अब कैद से निकल गयी,
पर अभी भी कई बहुएं अपने घरों में
अतिथि ही रह गयी....

सुप्रिया "रानू"

Friday, November 2, 2018

शरद तुम्हारे जीवन की..

मैं बनूँ शरद तुम्हारे जीवन की,
रच बस जाने वाली खुशबू
तुम्हारे अंतर्मन की...

बन हरसिंगार खिलूँ हर रात,
महक उठे हर रात चाँदनी
मेरी खुशबू से तुम्हारे तन की..
बन कोहरे सी ढँक लूँ,
तुम्हारे सारे दुख की जलती किरणे,
और ओस की बूंदों सी
बीछ जाऊँ तुम्हारे मन की धरा पर..

मैं बनूँ शरद तुम्हारे जीवन की....

बन ऊनी शॉल लिपट कर तुमसे
ठंड की सारी सिकुड़न दूर कर जाऊँ,
तो कभी गुनगुनी धूप की तरह
तुम्हारी तपन बन जाऊँ..
सरसो के साग और मक्के की रोटी
की तरह मक्खन की तरह तुम्हारे जीवन
में घुल जाऊँ...

मैं बनूँ शरद तुम्हारे जीवन की....

हो भले ही 2 माह का मेरा अंश तुम्हारे जीवन मे,
पर प्रेम की तपन और मेरे समर्पण का रंग
भर रहे तुम्हरे अंतर्मन में ..
आंवलें लिपटे होते हैं जैसे
अपनी तनों से वैसे ही लिपटा रहे
तार हम दोनों के मन की

मैं बनूँ शरद तुम्हरे जीवन की,
रच बस जाने वाली खुशबू
तुम्हारे अंतर्मन की...

सुप्रिया"रानू"


गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...