सालों से दबी हैं न जाने कई हैं,
चिंगारियों की तरह सुलगते ख्वाब।
कभी कोई विवशता,तो कभी कोई मजबूरी रही,
कभी मन ही न हुआ तो कभी मेहनत से दूरी रही,
सुलगते बुझते कर ही लेता है इंसान परिस्थितियों से समझौता,
और फिर न जाने किस किस को दोष देकर
मना लेता है अपने मन को,
सालों से दबी हैं न जाने कई हैं,
चिंगारियों की तरह सुलगते ख्वाब ।
थोड़ी तो कमी रही होगी
एक दृढ़ इक्षा शक्ति की,अपनी परिस्थितियों से पर हो जाने की,
कुछ पल को सब कुछ भूल जाने की,
सारे मतलबों को सिद्ध कर देने की मनसा से हट जाने की,
स्वयं को सोच लेने की हठ की,
नही तो ये ख्वाब सच बनकर आज जी रहे होते,
और हम परिस्थितियों और यूँ न रोते।
सालों से दबी है,न जाने कई हैं,
चिंगारियों की तरह सुलगते ख्वाब।
सुप्रिया "रानू"