Wednesday, September 5, 2018

शिक्षक दिवस

शिक्षक शिक्षा का दान देने वाला...जिसके लिए मन में सिर्फ आदर का भाव आये,वर्तमान में क्या परिस्थितियां सम्मुख हैं बेझिझक रखना चाहूंगी...
वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें,सदा सर्वदा खूबियों में डूब रहनेवाला संसार आइए आज सत्य से रूबरू होते हैं...

निस्वार्थ शिक्षा,अनुशासन,संस्कार
को अंतर्मन तक भर जाने वाला
सम्मान का प्रतिरूप शिक्षक,गुरु
जो पूजनीय हुआ करता था..

वर्तमान परिपेक्ष्य में वह मात्र
एक नियत वेतनमान के अधीन
रहकर सिर्फ सीमित पाठ्य पुस्तकों
के पूरे अधूरे शब्दों में
प्रश्नों के उत्तर लिखा देने वाला
एक कर्मचारी हो गया है...

गुरु जिसके चरणों मे नमन को मस्तक
स्वयं झुक जाए,जिससे नज़रे मिला पाना
मानो अपनी नज़रें लज्जा से सिमट जाएं
आज वो गुरु अपमान तिरस्कार और
अपनी कर्तव्यनिष्ठता के लिए प्रश्न करने वाले
शिष्यों से घिरा है..
वास्तव में शिक्षक नही अपितु
शिष्य भी अपने स्तर से गिरा है,

एक मर्यादा एक निश्चित सीमा में बंधा
यह शिष्य गुरु का रिश्ता भी
दूषित सा हो जाता है,
जब नज़रों की नीचता कभी
शिष्य तो कभी गुरु में नज़र आता है,
अब कहाँ रह गया एकलव्य कोई
कहाँ ज्ञान वास्तव में कोई अपनाता है,
शिक्षक दिवस के भेंटों और केकों में
रक्त में बहनेवाला संस्कार खो जाता है
तो कभी जो शिक्षक से अनुसाशन,
जीवन के अमूल्य सत्य,अनुभव
मिलता है कभी उन्ही सजावटों
के गुब्बारे के साथ फुट जाता है

गुरु की गरिमा एक दिन की नही
जो एक दिन के आदर से भर जाता है,
गुरु का ऋण कोई जन्मो तक कहाँ चुका पता है,
गुरु की गरिमा भौतिक्ताओं में नही खोई है,
गुरु की गरिमा देखो तुम्हारे सुनहरे भविष्य और
तुम्हारे स्वक्छ व्यक्तिवव में सोई है,

गुरु को सामान नही सम्मान दें,
गुरु से सिर्फ शिक्षा ही नही गुण लें,
अर्जित करें उनकी सहनशीलता को,
अपने जीवन मे प्रयोग करें उनके संयम को
गुरु को गुरु ही समझे बस इतना ही मान करें
वेतनमान के पैमानों पर न आंकें
वास्तव में गुरु का सम्मान करें...

सुप्रिया 'रानू'

Tuesday, September 4, 2018

हम मौन रह जाते हैं

जीवन में कुछ ऐसे क्षण भी आते हैं,
सारे हल समझ मे आते हैं,
हम फिर भी मौन रह जाते हैं...

मंज़िल दिखती है,
राहों का पता होता है,
ऊर्जा भी मन मे भरा होता है,
फिर भी न जाने क्यों
राहों पर अडिग से हमारा पावँ धरा होता है,
चलती राहों पर भी गौण रह जाते हैं..

जीवन मे कुछ ऐसे.....

रिश्तों का भरा बाजार होता है,
स्व में भरा हर व्यवहार होता है,
फिर भी न जाने क्यों
आसपास खड़े लोग अचानक
अपनेपन की परिभाषा में विक्षिप्त हो जाते हैं,
और फिर मन पूछता है
ये अपनो में जमात में सब कौन कौन हो जाते है..

जीवन मे कुछ ऐसे ....

सामाजिक धार्मिक पारिवारिक
और न जाने कितने आबन्धों में समेटे
खुद के अस्तित्व को ढोते ढोते ,
जिम्मेवारियों के निर्वहन,
खुद के सपनो की कुचलन,
प्रेम की अतृप्ति और न जाने कितने सारे
दबे अरमानो तले हम
बाहर से वक्ता और अंतर्मन में
मौन हो जाते हैं...

कभी सुकून पाओ तो सोचना
ये औरों के लिए हम कौन कौन
और कौन हो जाते हैं
खुद को भूला के
स्व अस्तित्व को गौण कर जाते हैं...

जीवन मे ....

सुप्रिया 'रानू'

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...