Tuesday, May 29, 2018

प्रेम का गीत

आओ हम,तुम,मैं,हमसब,
एक सुर में घुल-मिल जाएँ,
निर्बाध रूप में खोकर,
एक ही लय में प्रेम गीत गाएँ...

अंतर के सारे पैमाने तोड़ दो,
सरहदों,राज्यों की सीमाएँ,
धर्मों, कुल जातियों,का भेद,
रंग-रूप लंबाई- चौड़ाई का विभेद
अमीरी और गरीबी की खाई पाट जाएँ,

स्वर,व्यंजन,मात्राओं से एक नव रूप सजाएँ,
एक ही लय में प्रेम गीत गाएँ....

जमीन पर हैं,हजारों प्रतिबद्धताएं,
यह मेरा हिस्सा,वह तेरा हिस्सा,
यह मेरा टुकड़ा ,वह तेरा टुकड़ा
इस मेरे तेरे की लड़ाई में
बेवा होती हैं कितनी नवबधुएँ,
तो सहारों से वंचित होते वृद्ध माँ - बाप
और अनाथ होते मासूम बच्चे,
आनेवाली सदियों में आओ इनसब को भूल जाएं,
आओ जमीन से थोड़ा ऊपर उठकर,
बनकर पंक्षी एक ही आसमान तले
एक साथ अपनी अपनी उड़ान उड़ते जाएँ,

एक ही लय में.....

पुरुष-स्त्री लड़का- लड़की,
बेटी- बहु,पति-पत्नी,
सास- माँ, ननद- बहन
न जाने कितने आडंबरों से
हमने यह समाज बनाये,
तीन अक्षरों का लेकिन लगाकर
दो रिश्तों के बीच हमने
सौ फीट की दीवार बनाए,
सब भूलकर क्षण भर में,
आओ अपने लहू को बस अपना पहचान बनाए,
आप तोड़ कर सारे भ्रमित पैमाने,
हम मिलकर सिर्फ एक जहां बनाएं
इंसान बन जाएं,और बस इंसानियत निभाएँ...

एक ही लय में..
कहीं रोटियों का हिसाब नही,
कहीं एक रोटी को तरसते नयन,
कहीं कपड़ों से भरा है घर,
कहीं फटे, मैले कुचले दो- चार टुकड़े ढंकते हैं तन,
कहीं उपभोग और कहीं दुरुपयोग है,
कहीं दो पैसा मिल जाना भी एक संयोग है,

ज्यादा कुछ नही बस एक - एक कदम
हम सब एक दूसरे की ओर बढ़ाएं,
यह भेदो की दीवार तोड़ जाएं,
प्रेम ही प्रेम हो हम सबमे
प्रेम से ही हर रिश्ता जोड़ जाएं,
एक ही लय में.....

अल्लाह हो,भगवान हो,गुरु हो या फादर,
हम सब ऊपरवाले से जीवन पाकर,
उस जीवन को धन्य बनाएं,
रास्ता जो भी हो हमारी फकीरी का,
बस एक दूसरे को न ठेस पहुंचाएं,
धर्मों के आबंटन में उलझना छोड़ो,
ऐ मूढ़ मानवों ..इंसान हो,
जिसे भी माना है,उसे गौरवान्वित कर दे हमारा व्यक्तित्व,
ऐसी कृति बन जाएं..

आओ एक ही लय में.....

सुप्रिया"रानू"

Saturday, May 26, 2018

तपन

अम्बर से धरती तक
पख पखेरू,खग - मृग
नदी पोखर,पेड़-पौधे,
बाग बगीचे सब वन उपवन
ज्वलित हो रही धरा
चहुँ ओर व्याप्त बस सिर्फ जलन,
कुछ और नही सखी,
यह सूरज का प्रकोप है,
और मिल गया पूरा वातावरण,
फैल गया है कण-कण तृण-तृण
ये जेठ की तपन
ये जेठ की तपन....

हिलते नही हैं पात,
बुझती नही कंठ की प्यास
खुले में रहने वाले जीवों
का जीवन है,त्राहि त्राहि
पक्षी बिन पानी हो रहे बलिदान,
है मन आकुल सब मनुजन का
कर रहे हर किस्म के परित्राण...

देख रहा ऊपर बैठा वो
हमारे सहने का  पैमाना,
हुआ तपिश से हाल बेहाल
ऐ सूरज अपनी गर्मी ले जाना,
ज्यों रात अंधेरी होते ही,
सुबह की बेला आती है,
जलाकर तपाकर इस धरती को
तब बरखा रानी आती है,
सब हो जाएगा तृप्त जल से
जो आज हैं जीव जंतु विकल से,
धरती पर हरियाली छाएगी,
सब गर्मी सब त्राहि को हरने
जब वर्षा ऋतु आएगी,l

जीवन का चक्र समझाने को,
हम सबको सबल बनाने को,
लेती ऋतुएं हमारी परीक्षा
डटे रहो, और जीत जाओ हर पल जीवन का,
यही दे रही प्रकृति सदा शिक्षा..

ठंडी हो जाएगी,यह सारी तपन,
थम जाएगी चहुँ ओर की जलन
आएगी बरखा झनकाती पायल छन छन
सारी असंतुष्टि बन जाएगी,तृप्ति का क्षण
बस इंतज़ार कुछ और समय का,
सिमट जाएगी बारिश की बूंदों में,
ये जेठ की तपन....

        सुप्रिया "रानू"

Tuesday, May 22, 2018

माँ... तुम और मैं

आज रचना न लिखी है  बस मन किया कह देने को कह दिया ..
यह  कविता आज की नही है आज से 9 साल पहले की है पर आज पोस्ट कर रही हूं इस कविता में मैंने महसूस किया कि व्यथा शब्दों में ढलकर कैसे शक्ति बन जाती है,आज 5 साल हुए अपनी जननी को खोये सो आज का दिन जीवन मे गहरी छाप के साथ अंकित हुआ है,आज जो  यहाँ लिख रही हूं जो मुझे उस विपरीत परिस्थिति में बल देती रही,ये सब मैं हॉस्पिटल के वार्ड के बाहर इंतज़ार करते लिखा करती थी मन में एक बल लिए की यहां मैं लड़ाई लड़ने आयी हूँ, खुद को योद्धा समझती थी,मैं और मेरा अनुज मानों मौत के मुँह से खींचकर माँ को ले जाएंगे स्मरण मात्र से वो दिन झंकृत कर जाते हैं अंतस को....

मेरी माँ : लौह महिला

वो बचपन से कर रही है संघर्ष
न जाने नियति ने कब लिखा है,
उसके जीवन का उत्कर्ष,
आँसू के एक एक घूंट को पीकर
करती है इंतज़ार वो एक लम्हे का हर्ष,
वो बचपन से कर रही संघर्ष..
जिम्मेवारियों से झुका रहा कंधा,
शायद जिम्मेदार सदा रहा अंधा,
अपनी हर खुशी दांव पर लगाकर
अपने गम का हर लम्हा छुपाकर
वो जीती रही विषमताओं का
है लम्हा लम्हा जी जान लगाकर,
मिट्टी के काछी मूरतों को
ढालती गयी पक्के सांचे में,
संस्कार,परंपरा,अनुशासन
शिष्टता एयर सुव्यवहार भरकर
त्याग की हर सीमा पारकर
ज़िन्दगी से न कभी हारकर
वो बचपन से......
सुख के दिनों का न कर इंतज़ार,
दुख के हर लम्हों को बिना इनकार
ईश्वर की हर भेंट को कर सहर्ष स्वीकार,
लब से उफ्फ न आंखों से हुआ कभी आँसू का इज़हार,
ममत्व के ऊंचाईयों के शीर्ष
वो बचपन से कर रही है संघर्ष
खुद का हिस्सा भी बाँटा औरों में,
भेद किया कभी अपने और गैरों में,
हंसकर समर्पण किया सदा,
लेकिन आज
विषमताओं की आँधी कहाँ रुकी,
परीक्षाओं की घड़ी कहाँ झुकी,
नियति ले रही आज अंतिम परीक्षा
मौत अजर ज़िन्दगी की समीक्षा,
कहता है उसका साहस यही,
जो गाथा बचपन से ही रही
हर बार जीतती है,ज़िन्दगी से
मौत से भी जीतेगी भी वही,
कौन से अपने कौन पराये,
आज उसके पास न आये,
कौन सा त्याग कौन समर्पण
कर न सके वो अंश भी अर्पण
उसका गौरव कभी कम न हुआ,
मिट्टी के कच्चे पुतले ही,
उसके सांचे में जो ढले
उसकी छाया में जो पले,
मौत का न करने देंगे स्पर्श
खत्म करेंगे उसका संघर्ष...
दिनांक: 08/10/2007
और सच मे 22 मई 2013 तक न करने दिया स्पर्श मौत का,पर शारीरिक अस्वस्थता कष्ट ऐसी विडम्बनाएं हैं जो विवश कर देती हैं हम यह सोचने पर जब इलाज़ में कुछ न बच जाए तब मृत्यु ही एक मात्र रास्ता दिखता है,जिसके जीवन और लम्बी उम्र की कामना की आज तक लगता है उसे मृत्यु के हाथों सौंप करहम उसके शारीरिक कष्ट से उसे मुक्ति दिला देंगे, जिससे लड़ने को यौद्धा बने हम उसी के आगे घुटने टेक दिए और अभी वर्तमान की स्थिति
जी रहे हैं तुम बिन सब
सबकी सांसे चलती हैं,
बस घर घर नही लगता
और मुझे मायका मायका नही लगता,
मेरी साड़ी पहनने और बिंदी लगाने
के तरीके तुमने न देखा,
नही टोका
बस अब तो तारीफें ही तारीफें हैं,
चाहे मैं गलत भी होऊं तो
तुमसे गलत कह पाने वाला न है कोई,
मेरी अंतहीन बातें न चलती,
कोई विधुर है तो
तुम बिन कोई अनाथ है,
मन मे बस तुम्हारा संस्मरण सबके साथ है,
कहते हैं सब आसपास ही रहती हो,
कभी दिखती न न कभी स्पर्श की अनुभूति हुई,
वो बचपने की  तुम भगवान के पास हो,
वही भरम आज का सच दिखता है,
अंतस में दुख है या सुख अब ये कौन पूछता है...

आज जैव विविधता दिवस है,biodiversity day..
और मेरा जैव अस्तित्व की जड़ को पंचतत्व में विलीन होने का भी दिन....

Thursday, May 17, 2018

स्पर्श

वो पहली छूउन
जिससे मैं ठिठकी,
पर आश्वस्त हो गयी,
एक विश्वास,एक तरंग,
नई आशा,नई उमंग,
का संचार था,
वो स्पर्श मानो मुझमे
नई ऊर्जा का आधार था,
मूंदी नयनों से भाँपा था मैंने,
एक भाव जो निस्वार्थ था
जिसमे यह कामना न थी
कि मैं सामाजिक,शारीरिक,
पारिवारिक,खोखली प्रतिष्ठा,
खोखले परम्पराओं के आडम्बर,
खोखला अहम, खोखली इज़्ज़त का ढिंढोरा
जैसी जरूरतों का निवाला बनूँ,
अपने हाथों को हृदय से लगाकर पूछा था
मन से बड़े मन से ये सवाल मैंने,
ये स्पर्श कैसा है,
टटोल कर अंतश तक मेरे मन को
मन का प्रत्युत्तर था,
यह स्पर्श सिर्फ और सिर्फ प्रेम से भरा है,
तुम खिल पाओ ,
जैसे कुशुम खिल जाती है,
एक रोशनी के किरण से
वैसी ही सैकड़ों किरणे भरी हैं
इस प्रेम के एहसास में,
तुम उड़ पाओ ऐसा ही
असीम विश्वास भरा है
इस निश्छल प्रेम में,
मूंदे नयन की एहसास छुअन की,
मानो था एहसास नव  जीवन की
इससे पहले की ये मन भ्रमित हो जाये,
और मैं देव समझ बैठूं उसे,
खुल गए मेरे नयन,
और छुप गया मेरे स्वप्न में
वो स्नेहिल छुअन....
सुप्रिया "रानू"

Wednesday, May 16, 2018

बदलाव

वो कमल थी,
कीचड़ में खिलना प्रवृत थी
सामाजिक आँधी ले आयी
उसका रूप बदलकर रेगिस्तान में,
नागफनी बनी है
पानी(प्रेम) के अभाव ने
पत्ती(सुकोमलता) की जगह
कांटे(दृढ़ता)ऊगा दिए,
फिर भी छोड़ न पायी अपनी प्रवृत
खिलने के कम हैं आवृत
पर संयम से हरी दिखती है
मुस्कुरा कर अब भी खिलती है

रंग,रूप,आकार,
स्वरूप बदल जायेगा,
प्रवृत,और प्राकृत
बदलने का हुनर कोई
कहाँ से लाएगा
झड़ जाते हैं पत्ते सारे
वृक्षों के भी हर पतझड़
बसन्त के आते नई कोंपले
कोई कैसे रोक पायेगा

विवश करेगा हर वातावरण,
चाहेगा तुममे उसके अनुकूल परिवर्तन,
की ढल जाओ तुम उनके आवरण
अडिग अचल रहना
सम्भलना सदा सम्बल रहना,
ठहर जाना कुछ देर या पथ बदलना,
पर न कभी मंजिल बदलना,
सदा अपनी प्रवृत में रहना
न कभी अपना आचरण डिगना,
नफरत मिले मिलती रहे,
प्रेम स्वभाव है तुम्हारा
प्रेम को प्रेम से निभाना...

   सुप्रिया "रानू"

Tuesday, May 15, 2018

तपिश

ये जेठ का महीना भाता था,
जब विद्यालय जाना होता था
और छुट्टियों का मज़ा आता था
गांव की मिट्टी में खेलना
आम के बगीचे की धमाचौकड़ी
गेँहू का दाँवनी, और
धूल में लिपटे हम
माँ की लगातार डाँट के बीच
बस घर की दहलीज को लांघ जाना,
वो बहु थी उसका बाहर आना था मना,
मानो हमे उन्मुक्तता का आसमान मिल जाना,
यह सुहाना से जेठ न जाने जब पांव दबाकर निकल गया
पढ़ते लिखते व्यस्तताओं का ऐसा जमा पहना,
फिर क्या फागुन क्या जेठ क्या सावन का बरसना,

खला जेठ बहुत ज्यादा उस साल,
गर्मी चरम पर थी,
वो भी दिल्ली में,
मई के महीने की तपिश
कभी 42,43 तो
कभी 45 पर कर रही थी,
उसी तपिश ने मेरे जीवन की
सबसे बड़ी गर्माहट को छीन लिया,
जिस कोख में नौ महीने ठंड का एहसास न हुआ
न ही किसी की बुरी नज़र ने मुझे छुआ,
उस जेठ तक जिसका आँचल हर डर की ठंडी हर लेता,
असीम प्रेम की गर्माहट भर देता,

तबसे यह जेठ का महीना बहुत खलता है,
ठंडक नही मिलती कहीं प्रेम की,उस सूरज से मन मेरा भी जलता है,

धरती पौधे,नदी पोखरे,
पख-पखेरू,खग बरखा को तरसते
हर कोने में जैसे दृग,
उसी तरह मेरा मन भी मचलता है,
भटकता है,लिए तुम्हारी स्मृति की कस्तूरी
बन के विकल मृग

माँ बनने की उम्र में भी
उस तपिश की कमी खलती है,
क्या कहूँ उस साल की दिल्ली की गर्मी
सी हर साल ये जेठ की तपिश से
मेरी आत्मा जलती है

      सुप्रिया "रानू"

Saturday, May 12, 2018

माँ :तुम्हारी बात

मातृ दिवस पर विशेष जो हर सृजित कृति महसूस करती है, शब्दों में भले हर कोई अभिव्यक्त न कर पाए पर प्रेम सबका वही होता है... एक छोटी सी कोशिश की है उस असीम प्रेम के सागर के लिए जिसके आँचल में जिसके आभास में जिसके एहसास में सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो रहा...

                 माँ : तुम्हारी बात

दुनिया की तपती धूप में,
तुम्हारे असीम प्रेम की बरसात लिखूं,
मेरे नवसीखिये लड़खड़ाते उठते क़दमों को,
मिले तुम्हारे हाथों का साथ लिखूं,
या फिर तुम्हारे प्यार,दुलार,ममता ,
निर्मल निस्वार्थ प्रेम से,
सिंचित अपने जीवन की सौगात लिखूं..,
         शब्द कम पड़ जायेंगे,
                    माँ
       तुम्हारी चाहे जो भी बात लिखूं..

तुम्हारे दिए आँचल के फूल चुनु,
या सबसे मिले कांटे बिन लूँ,
अपने हृदय में दुनिया की ,
ईश्र्या,नफ़रतें भर लूँ,
या तुम्हारे प्रेम के स्मरण मात्र से,
अपना रोम -रोम पुलकित कर लूँ,
तुम्हारा निस्वार्थ,निश्छल,निर्मल प्रेम लिखूं,
या दुनिया के सौ आघात लिखूं !

      शब्द कम पड़ जायेंगे ।
                माँ
   तुम्हारी चाहे जो भी बात लिखूं।।

कामना यही है,
जीवन के अनगिनत संघर्षों में,
तुम्हारी दी सीख समझ का इस्तेमाल करूँ,
तुम्हारी दी परवरिश से,
स्व अस्तित्व में परिलक्षित
तुम्हारी छवि बेमिशाल करूँ,
सफलताओं,उपलब्धियों,समर्पण,
त्याग के बाद भी,
दुनिया से मिली असंतुष्टियों की जमात लिखूं,
या फिर,
असफलताओं,दुखों निराशाओं में भी,
तुम्हारे आँचल के तले वाली सुकून की रात लिखूं।।

      शब्द कम पड़ जायेंगे ,
       माँ
      तुम्हारी चाहे जो भी बात लिखूं।

अपनी इक्षाओं,खुशियों को मारकर
जिनको अपने हिस्से की खुशियां भी दे दी,
उनसे मिली उलाहनाओ,शिकायतों
वाले हालात लिखूं,
या फिर
अपने हिस्से का निवाला भी मुझे खिलाकर,
अपने प्रेम की थपकियों से मुझे सुलाकर,
मेरे सुकून को देखकर,
काट लेने वाली तुम्हारी
मुस्कुराती रात लिखूं

   शब्द कम पड़ जायेंगे
             माँ
तुम्हारी चाहे जो भी बात लिखूं

सुप्रिया "रानू"

मोहब्बत का नया पैगाम

उसकी  ख्वाहिश ऐसी लगी दिल गुलिस्तां को,
की अपनी सारी ख्वाहिशें कत्लेआम हुई...
दिल खोलकर कर दिया इज़हारे मोहब्बत हमने भी,
क्या हुआ जो बेमतलब की बनाई इज़्ज़त बदनाम हुई...
नाकामी का खौफ है किसे ,किसने सोची है जुदाई,
मैंने तो मान लिया उसे रब उसकी मोहब्बत है अब खुदाई.
दिलोजान की हर हसरत मेरी चाहत की अरमान हुई,
मैं बन बैठा अब जमीन वो मेरी आसमान हुई...
इंतज़ार इज़हार,गुलाब.....
किसको पड़ी है,वो नज़रअंदाज़ करे,या रुख मोड़ ले हमसे,
मेरी वफ़ा है मेरी बन्दगी, मेरी रूह तो उसपे ही कुर्बान हुई,
आंखे मूँद लूं तो ख्वाबों में खिलखिला उठती है वो,
जो रूबरू होक गुजर जाए बस इतने में मेरी चाहत एहतराम हुई...
इंतज़ार इज़हार गुलाब...
कौन कहता है मेरी मोहब्बत का फलसफा अधूरा है,
इन्तज़ारे यार के वास्ते राहों में गुलाब बिखेरा है,
दीदारे यार की इंतज़ा है,वास्ता अपनी मोहबब्बत का दे रखा है,
ख्वाब उसके ही देखती हैं नज़रे किसे खबर है
कब सुबह कब शाम हुई
इस दिल मे ज़िंदा रहेंगी मेरी वफ़ाएँ
मेरा ज़ज़्बा ये ताउम्र इंतज़ार का एक नया पैगाम हुई...
इंतज़ार, इज़हार,गुलाब,ख्वाब,वफ़ा नशा,
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई...
सुप्रिया "रानू"

नोट: मेरी इस कविता की मुख्य पंक्तियाँ 
"इंतज़ार,इज़हार,गाब,ख्वाब,वफ़ा,नशा,
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सारे आम हुई"
रोहिताश घोड़ेला जी की लिखी कविता से उद्घत हैं

Friday, May 11, 2018

शब्दों का गंगाजल

शब्दों से हंस लेती हूँ,
शब्दों का अश्क़ बना
दुख बनकर बह लेती हूं
शब्दों से सजती
शब्दों में सवरती हूँ,
शब्दों में भाव भरती हूँ,
शब्दों में ही दिखती हूँ,
शब्दों में छुप जाती हूँ
जो कह पाती शब्दों की ओट में,
शब्दों में ही चुप हो जाती हूँ,
शब्दों में प्रेम,
शब्दों में साथी,
शब्दों में शांति पाती हूँ,
शब्दों में संतुष्टि,
उड़ने का जब भी जी होता है,
बांध शब्दों के पर
उन्मुक्त गगन उड़ आती हूँ,
शब्दों में खुशी,
शब्दों में ही विरह राग भी गाती हूँ,
दूर होके दुनिया से भी,
शब्दों की दुनिया मे खो जाती हूँ,
आकारों के कंधों पर सर रख कर
इकार की छाँव में ठंडी हवा पाती हूँ,
मात्राओं का श्रृंगार कर खुद पर इतराती हूँ,
शब्दों में ही अपनी जीवन नाव बहती हूँ
मन भर जाए जब भावों से
सुख हो या फिर असीम दुख
शब्दों को बना गंगाजल नहाती हूँ...
         सुप्रिया"रानू"

Wednesday, May 9, 2018

मैं और मेरा पौरुष

स्त्रैण मन से एक पुरुष के मन को पढ़ने समझने औऱ अभिव्यक्त करने की एक छोटी कोशिश की है सभी पुरुष पाठकों से विशेष आग्रह है मुझे इतना अवगत जरूर कराएं मैं कहाँ तक पहुंच पाई हूँ कौन सा हिस्सा छुटा है,या कुछ त्रुटि हुई है...


 मैं अधूरा हूँ तुम बिन 
इस स्वीकार्यता में
मेरे पौरुष को ठेस न पहुंचती,
न ही ऐसा है कि मुझपे
यह वाक्य न जंचती,
सच कहूं तो मैं
अपने एहसासों को भाव न दे पाता,
तुम्हारी कमी को
अपने नयनों के कोरों
की नमी में न बदल पाता..
नही भाती मुझे ये खामोशी
बिना किसी टोकाटोकी
के चलनेवाली मेरी मनमानी,
बिना धमकी ताने के रहना,
न ही कोई तानतानी,
न कोई शिकायत
न ही अचानक प्रेम की नदी का मिलना,

अधूरा हूँ मैं भी तुम बिन
बस कह न पाता,
अपूर्ण नर हूँ नारी बिन,
सूने मेरे कंधे बाजू और वक्ष,
कोई साया न है जो ओट ले सके
मैं सम्बल बनकर जिसका गर्वित होउ ,
देख कर तुम्हारे होंठों की हंसी हर्षित होऊं,
घर के कोने रसोई का हर हिस्सा
जो खिला हरियाली भरा गिला गिला से होता था,
देखो कैसे सब मुह मोड़े,
सुर्ख पड़े हैं,
महसूस करता हूँ हर वक़्त,
अधूरा हूँ मैं भी तुम बिन 
बस कह न पाता
अपूर्ण नर हूँ नारी बिन
आइने जो रोज तुम्हे देख कर इठलाते थे,
मेरी छवि भर से मुह मोड़ते हैं,
चिड़ियों का मेला जो तुमसे दाना पानी
की आस में मेला लगाते थे
घर का रास्ता अनो भूल गए हैं,
रसोई के बर्तन भी मुझसे इतराते हैं,
साफ सफाई है,
घर को संभाला है,
रसोई में भी सब कुछ तुम्हारी तरह पका डाला है,
पर जो रस तुम्हारे होने का है,
वो कहीं बाकी है,
मेरे खारेपन को जो मिलके मीठा कर देती हो,
मैं झिझकूँ भी तो तुम थाम  के हाथ
सब उल्टा उल्टा भी सीधा कर देती हो,
तुम पूर्ण करती हो अस्तित्व मेरा
मैं ना भी कहूँ तो समझती हो
हर टेढ़ा मेढा चित्र मेरा,
मेरी नीरसता में भी जो रसों की फुहार लाती हो,मेरे जीवन के पतझड़ में भी जो बहार लाती हो,
कह नही पाता बस इतना समझ लेना
कहूँ न कहूँ तुम बिन रह नही पाता...
अधूरा हूँ तुम बिन,
बस कह न पाता,
अपूर्ण नर हूँ नारी बिन
सुप्रिया"रानू"

जो तुम आ जाते एक बार

स्त्री जो सर्वस्व न्यौछावर कर के भी खुद को अधूरा समझती है जिससे वह प्रेम करती है उसके बिना ,अपना जीवन क्या रोजमर्रा की छोटी छोटी चीजों में जोड़ के रखती है,निर्भरता नही यह अटूट प्रेम है,जिससे वह आजीवन मुक्त नही होना चाहती सब समझ कर भी वो इसी में डूबे रहना चाहती है....
नींद  से दूर ये आंखे   
बोझिल हो जाती,
नम पलकों के कोरों
से नीर ओझिल हो जाती,
भोर होती जीवन में
और सुकून की रात होती
दिलो दिमाग मे चलने को
तुम्हारे अलावा और भी बात होती
जो तुम आ जाते एक बार...
सुना कर के रखा है
जो नयन का कोना कोना
भर डालती सलीके से काली स्याही
सुर्ख होठों पर मल देती
थोड़ी लाली,
ये जो मुरझाया सा चेहरा मेरा,
हो जाता सुर्ख लाल
खिले गुलाब की पंखुड़ियों की तरह
पैरों में महावर,और हथेलियों पर मेहंदी का रंग चढ़ता,
जो तुम आ जाते एक बार...
ये रसोई से जो मरीजो के खाने वाली
महक आती है हर शाम,
छौंक के हींग सौंफ और न जाने कितनी
बारीकियों से पकाती 
खुशबू में भीगी न जाने कितने किस्मो की सब्जियां,
रोटियां जो सुखी यूँही  रहती हैै,
तर होती मख्खन और मेरे प्यार में..
जो तुम आ जाते एक बार...
जीती हूँ, खुश हूँ, सजती हूँ,
जरूरत पड़े तो मुस्कुराती भी हूँ,
पर जोड़ रखा है जो अपना वजूद तुमसे
कैसे कहूँ तुम्हारे बिना खुद को भी न कही पाती हूँ,
नदी हूँ बहती हूँ निर्बाध निर्झर,
पूरे परिवार की प्यास स्वरूप सारी जरूरत पूरा करती हूं
पर मेरा समुंदर तो तुम हो,
अपने अस्तित्व का असली मतलब
तुममे मिलकर ही पाती हूँ..
समा जाती तुम्हारे आगोश में खुद को भी भुलाकर
जो तुम आ जाते एक बार....
    सुप्रिया "रानू"

Monday, May 7, 2018

सुबह सवेरे

सारी  कृत्रिम रोशनियों को चीरकर,
धीमी पड़ती चाँद तारों की चमक,
अपनी नई नवेली लालिमा के साथ
आंखे मिचता सूरज देखो
कैसे गगन के आनन में अंगड़ाइयां लेता,
ठीक कर रहा है अपनी किरणों की साज सज्जा

कलियां जो बटोर कर रखी थी अपने पंखुड़ियों में सारी लज़्ज़ा,
खुल रही हैं धीरे धीरे पलकें मिचते,
लजाते शर्माते अपने यौवन के पट,
खिलकर भौंरों को लुभाकर सन्ध्या में
लोट जाना है भूपर अपने अस्तित्व को धूलित धूसरित कर
एक दिन का जीवन पूरे उमंग से जीकर..

सड़कों किनारे खुद के वजन से ज्यादा भारी
बस्तों का बोझ लिए
आंखे मिचते बस के इंतज़ार में खड़े बच्चे,
पढ़ रहे हैं जीविका के लिए संस्कारों के लिए
अर्थ के लिए व्यर्थ के लिए न जाने उन्हें नही पता है,
बस खुद को और बस्तों को ढोकर विद्यालय तक ले जाना है
और सांझ ढले ले आना है...

दुकानों को साफ करते लोग ,
आफिस की जल्दी में भागते लोग,
रसोइयों में से आती अलग अलग
छौंक की खुश्बू,
दादा दादी के टहलने योग प्राणायाम के चरण
ठंडी हवा के झोंको में इठला कर
लहराती छोटी छोटी अमिया,

और इनसब के बीच

जिसे कोई जल्दी नही है,
पेड़ की एक डाली से दूसरी पर कूदती फाँदति
कोयल और एक ही लय जो होश संभाला तबसे
आज तक सुनती आ रही
कू कु कु कु कु कु
न जाने कितना चिढ़ाया होगा मेरी आवाज के प्रत्युत्तर
में तो कितनी बार औऱ चिढ़ के बोलती थी कु कु कु...

सुबह की सैर करने का विचार
इस तपिस में सबको एक ठंडी हवा खिलाने के व्यवहार
कैसी लगी सुबह की सैर

भूल के सब ईर्ष्या सब बैर
चलो एक बार कर आते हैं रोज
ये सुबह की सैर....

ना आवाज़ दूंगी

ना पुकारा है,ना पुकारूँगी,
ना रोका है,ना रोकूंगी,
तुम चलना निरंतर अपनी राह में,
मैं कभी भी पीछे से
ना आवाज़ दूंगी...,

हाँ पर
कभी जो थम जाओ,
हो जाओ अधीर,
रास्तों की थकन बना दे गंभीर,
एकाकीपन का लम्हा- लम्हा
तुम्हे दे अंदर तक चीर
ठिठक कर सुन लेना,
अपनी अंतर्ध्वनि
हर पल तुम्हारे मन से जोड़कर
खुद का मन मैं तुम्हारे
एकलव्य को भी मेरे साथ का साज़ दूंगी ..

तुम चलना निरंतर अपनी राह में,
मैं कभी भी तुम्हे पीछे से
ना आवाज़ दूंगी...

तुम भले हीं नयन मूँद रहो,
मेरे होने न होने के एहसास से परे,
तुम जीना एकाकी जीवन,
मैं सन्यास में भी अपने मन
को तुम्हारे नाम का वैराग दूँगी
ठिठक कर सुन लेना अपनी अंतर्ध्वनि
हर क्षण मैं तुम्हारे मन के संगीत को 
मैं एक नया राग दूँगी

तुम चलना निरंतर .....

तुमने रंग चुना है सफेद
लाल या सप्तरंगों का एकल संयोग,
तुम ओढ़े रहना कभी धरती की हरियाली,
कभी आसमानी चादर गगन का,
जब भी मन हो जाये बोझिल
बस ठहर जाना पल भर को,
ठिठक कर टटोल लेना,
अपना अंतर्मन,
मेरा अंतर्मन तुम्हे हर रंग का फाग देगा
मैं कहीं भी रहूँ मेरा जीवन
तुम्हारे जीवन को निरंतर राग देगा

     सुप्रिया "रानू"

 

Friday, May 4, 2018

इंतज़ार

इंतज़ार है या एक भ्रम भर,
जो शायद पूरा ही नही हो आजीवन,
फिर भी चाहता है ये मन
तुम आओ वापस इस जीवन,
देह छोड़कर गए साल बीते तुम्हे,
पर मेरा तो मायका ले गयी हो,
अनुज का बचपन जिम्मेवारियों में
डूबा गयी हो,
तुम नही थी कन्यादान करने को,
कर लिया पिता की काँपती हाथों ने अकेले,
आती जो क्षण भर को उनके हाथों का सहारा बनने
मन को मेरे था इंतज़ार,
जानती हूं नाहक था ये अरमान बेकार,
फिर भी था तुम्हारा इंतज़ार..
जीवन के उलझनों में उलझती हूँ,
तुम्हे याद करती हूं और सुलझती हूँ,
मुझसे भी विकट परिस्थितियां देखी तुमने
उबरी सबसे अकेले अपने दम पर
तुम्हारा अंश हूँ मैं भी उबरूंगी,
पर जो ये मन मे है,सबके बाद भी
कभी चुपके से रात में आकर मेरा माथा सहला जाओ
ये इंतज़ार तो हर रात करूँगी,
रो लुंगी याद कर के सदेह न हो तुम
फिर भी आओगी ये इंतज़ार तो सदा करूँगी
न जाने कितने हाथों का कितनी जगह खाना खाया,
पर जो स्वाद तुम्हारे अनमने से बनाये खाने में भी होता था,
वो आज तक न पाया ,
जानता है ये मन तुम न बना सकती अब कुछ भी
मृत्यु का सच जानती हूँ,
आंखों देखा है सबकुछ वो हाथ यहीं रह गया राख बनकर
पर मानता नही है ये मन
सोचती हूँ कभी तो परियों की तरह आओगी
आकर कुछ बनाकर छुपाकर रख जाओगी रसोई में,
मन मे है अभी भी ये इंतज़ार
जानती हूं नाहक हैं ये
मेरे अरमान बेकार फिर भी
है तुम्हारा इंतज़ार,
तुम्हारी साड़ियां जो मुझे बेहद पसंद थी,
वैसी ढूँढूँ भी तो न पाती हूँ,
तुम ही आना किसी दिन ढूँढकर
रख जाना सिरहाने
बातें जिनमे हम पूरी रात बिता देते थे अब न हो पाती
किसी दिन खतों में लिख के रख जाना,
कर रही हूं गुड़ियों के कहानी वाला इंतज़ार,
परी बनकर ही पूरा कर जाना मेरा अधिकार
आना किसी दिन मिलने को ही दो क्षण
सोचना विचारना
पर पूरा कर देना मेरा इंतज़ार

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...