Thursday, January 17, 2019

आत्मव्यथा

अपनी डायरी का एक पृष्ठ साझा कर रही हूँ,

पहली बार ब्लॉग पर गद्य लिखने की कोशिश है, लगभग एक महीने बाद आज लेखन के लिए बैठ पाई हूँ, जीवन की  कई कड़ी परीक्षाएं देकर उतीर्ण हुई हूँ,फिर से एक परीक्षा चल रही उतीर्ण होने की हर मानदंडों पर खरी उतरने में लगी हूँ,
अभी अगले साल मार्च में मेरी शादी को दो वर्ष होंगे,इस बीच का वक़्त बेहद खुशनुमा बिता गत मास 20 तारीख को जीवनसंगी का बाइक से ऑक्सीडेंट हुया,वो बिस्तर पर और मै मैदाने जंग में,इस जंग में तनिक भी डर न हुआ कि उन्हें कुछ होगा माँ कि सात साल कि सेवा और इलाज जगह जगह अस्पतालों डॉक्टरों का चक्कर और वो 7 साल उनका बिस्तर पर ही रहना जीवन के बहुत सारे पहलू सीखा चुका था,अनभिज्ञता नही थी मेरे अंदर न हॉस्पिटल से न इलाज से न इनके दर्द से,मैं चुकी जंतु विज्ञान से ही अध्ययनरत रही हूँ, तो मन मे एक छाप है कि इलाज भले ही कष्टकारी होगा पर अंततः यह हमारा भला ही करेगा सो मैं एक पल को भी नही झिझकी इनका spleen damage  हुआ 3 लिटर bleeding पेट के अंदर, एक पल को भी न डर न भय न ही कोई शंका surgery के लिए consent sign करते वक़्त की कुछ हो सकता है इनको,मानो सावित्री की आत्मा हो मेरे अंदर चाहे जो हो जाये इनको तो बचा ही लूँगी,3 ribs के fracture, shoulder का dislocation और फिर toe का fracture उसकी surgery सब कुछ एक मशीन की तरह कर रही थी ICU के 10दिन और उसके 24 घंटे  एक stool पर बैठ कर बिताना कुछ भी असंभव और अर्थहीन न लगा सब मानो मेरे जीवन का परम कर्तव्य हो,मेरा भाई जो मेरा सबसे बड़ा सम्बल है जीवन का, वो इनसे मिलकर रो पड़ा पर मेरे लिए अश्रु निकल पाने का भी समय न था मानो सब सहेज रखा हो अंतस में,
ये हरपल मेरी आँखों के सामने थे एक पल को इनकी कमी महसूस न हुई,
लेकिन कहते हैं न ईश्वर भी सब सोच समझ कर रचता है,खली इनकी कमी मुझे,
उस दिन जिस दिन इनके घरवालों के मुँह से निकला कि मुझसे शादी हुई इसलिए accident हुआ ।

21वीं सदी और ये वाक्य पढ़े लिखे लोग इनके पिता जिन्होंने संस्कृत और हिंदी में स्नातकोत्तर किया है और ये शब्द उनके मुंह से..
विस्मय नही मेरे चेहरे पर हृदय पर एक गहरी चोट लगी इसलिए नही मैं दोषारोपित हुई,अपितु इसलिए कि मेरी दादी की जीवनी उनकी दादी की सबके बहूओं की जीवनी,सबकी यही कहानी थी,और इतने सदियों बाद आज मेरी भी।
यकीन नही हो रहा था कौन समाज कैसी बढ़ोतरी,कैसा विकास,यूं तो बाते कहने में और लिखने में आज तक मुझे भी अच्छी लगती हैं,लिंगभेद खत्म हो रहा,आज स्त्रियां पुरुषों के बराबरी में है,ये कौन सी बराबरी है,आज मुझे कुछ हुआ रहता,तो क्या यही लोग कहते कि मेरे बेटे से शादी हुई इसलिए ऐसा हुआ,
कुछ भी नही बदला नारी खुद को भी नही बदल पाई है कमियां तो मुझे खुद में भी दिखी मैं एक शब्द न बोली अब खुद से पूछ रही हूं क्या मेरी खामोशी इस बात की स्वीकार्यता थी....

यह एक पहलू था इस घटना का और न जाने कितने पहलुओं को देख मैंने, सांसारिकता,स्वार्थ,रिश्ते,रिश्तों का वास्तव में अर्थ,समय आते ही स्वार्थ के चयन बहुत बार सोचा व्यक्तिगत बातें सामाजिक मंच पर न रखूं लेकिन ये सारी बातें व्यक्तिगत न हैं समाज मे चली आ रही सदियों से कुछ गलत चीजें हैं जिन्हें बदलना बहुत जरूरी है।
सुप्रिया"रानू"

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...