न उसे बताया
न उसे जताया जा सकता है,
न उसे खोया
न पाया जा सकता है,
निश्चय ही,
अनुभूति और निःशब्द
हो जाना ही प्रेम की वास्तविक परिभाषा होगी,
क्योंकि शब्द तो सीमाओं में बंधे होते हैं,
और जताना तो थोपी जाने वाली भाषा होगी,
प्रेम तो परिणाम से अनभिज्ञ,
निरन्तर विस्तार को प्रतिज्ञ,
और स्वयं को भूल जाने को भिज्ञ
रहकर भी प्रेम में डूबने को प्रतिबद्ध
निर्बाध बहते जमे वाली भावना है,
जो परे है स्वार्थ से,यश और प्रवंचना से
जो प्रतिबद्ध नही है ,अभिव्यनजना से,
प्रेम तो बहते जाना है
निर्बाध सरि की भाँति,
आनेवाले पठार समतल और वृक्षों की जड़ों
से कट जाने के भय से अनजान होकर
प्रेम कर पाने और हो जाने की भावना है,
असीमित हो जाने की संभावना है।