मीठे मिश्री दानों के
सरीखे आवाज़
गूंजता था तुम्हारे आने से
बचपन की सुबह का हर साज़
घर के रोशनदान
पंखे के ऊपरी हिस्से
कभी दीवार की छोटी सुराखों
में बना होता था तुम्हारा छोटा सा मकान
न जाने कितनी बार तुम्हारे बच्चे जब
गिरते थे धरा पर कितनी
हिफ़ाज़तों से रखते थे हम बच्चे
उन्हें घर मे
और तुम उस पूरे समय बेकल रहती थी,
कहीं ये मानव मार न दे मेरे बच्चे को
इसी डर में
इतनी बड़ी दुनिया मे तुम छोटी सी चिड़िया
के रहने के सारे संसाधन कम हो गए,
बुद्धिजीवी श्रेष्ठ जीव बन कर भी
हम तुम्हारा लोप हो जाना सह गए,
अब भी तो जागना बनता है,
थोड़ा अपनी सुविधाओं से समझौता कर
तुम गौरैयों का एक घर तो हम सबके घर मे जंचता है।
आ जाओ वापस की हमने बना डाले हैं रोशनदान हर घर में,
अलार्म को छोड़ तुम्हारी आवाज़ से रोज ऑंखे खोलने का सुकून भी आ जाये अब शहर में ।