Tuesday, May 15, 2018

तपिश

ये जेठ का महीना भाता था,
जब विद्यालय जाना होता था
और छुट्टियों का मज़ा आता था
गांव की मिट्टी में खेलना
आम के बगीचे की धमाचौकड़ी
गेँहू का दाँवनी, और
धूल में लिपटे हम
माँ की लगातार डाँट के बीच
बस घर की दहलीज को लांघ जाना,
वो बहु थी उसका बाहर आना था मना,
मानो हमे उन्मुक्तता का आसमान मिल जाना,
यह सुहाना से जेठ न जाने जब पांव दबाकर निकल गया
पढ़ते लिखते व्यस्तताओं का ऐसा जमा पहना,
फिर क्या फागुन क्या जेठ क्या सावन का बरसना,

खला जेठ बहुत ज्यादा उस साल,
गर्मी चरम पर थी,
वो भी दिल्ली में,
मई के महीने की तपिश
कभी 42,43 तो
कभी 45 पर कर रही थी,
उसी तपिश ने मेरे जीवन की
सबसे बड़ी गर्माहट को छीन लिया,
जिस कोख में नौ महीने ठंड का एहसास न हुआ
न ही किसी की बुरी नज़र ने मुझे छुआ,
उस जेठ तक जिसका आँचल हर डर की ठंडी हर लेता,
असीम प्रेम की गर्माहट भर देता,

तबसे यह जेठ का महीना बहुत खलता है,
ठंडक नही मिलती कहीं प्रेम की,उस सूरज से मन मेरा भी जलता है,

धरती पौधे,नदी पोखरे,
पख-पखेरू,खग बरखा को तरसते
हर कोने में जैसे दृग,
उसी तरह मेरा मन भी मचलता है,
भटकता है,लिए तुम्हारी स्मृति की कस्तूरी
बन के विकल मृग

माँ बनने की उम्र में भी
उस तपिश की कमी खलती है,
क्या कहूँ उस साल की दिल्ली की गर्मी
सी हर साल ये जेठ की तपिश से
मेरी आत्मा जलती है

      सुप्रिया "रानू"

No comments:

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...