वो कमल थी,
कीचड़ में खिलना प्रवृत थी
सामाजिक आँधी ले आयी
उसका रूप बदलकर रेगिस्तान में,
नागफनी बनी है
पानी(प्रेम) के अभाव ने
पत्ती(सुकोमलता) की जगह
कांटे(दृढ़ता)ऊगा दिए,
फिर भी छोड़ न पायी अपनी प्रवृत
खिलने के कम हैं आवृत
पर संयम से हरी दिखती है
मुस्कुरा कर अब भी खिलती है
रंग,रूप,आकार,
स्वरूप बदल जायेगा,
प्रवृत,और प्राकृत
बदलने का हुनर कोई
कहाँ से लाएगा
झड़ जाते हैं पत्ते सारे
वृक्षों के भी हर पतझड़
बसन्त के आते नई कोंपले
कोई कैसे रोक पायेगा
विवश करेगा हर वातावरण,
चाहेगा तुममे उसके अनुकूल परिवर्तन,
की ढल जाओ तुम उनके आवरण
अडिग अचल रहना
सम्भलना सदा सम्बल रहना,
ठहर जाना कुछ देर या पथ बदलना,
पर न कभी मंजिल बदलना,
सदा अपनी प्रवृत में रहना
न कभी अपना आचरण डिगना,
नफरत मिले मिलती रहे,
प्रेम स्वभाव है तुम्हारा
प्रेम को प्रेम से निभाना...
सुप्रिया "रानू"
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