अम्बर से धरती तक
पख पखेरू,खग - मृग
नदी पोखर,पेड़-पौधे,
बाग बगीचे सब वन उपवन
ज्वलित हो रही धरा
चहुँ ओर व्याप्त बस सिर्फ जलन,
कुछ और नही सखी,
यह सूरज का प्रकोप है,
और मिल गया पूरा वातावरण,
फैल गया है कण-कण तृण-तृण
ये जेठ की तपन
ये जेठ की तपन....
हिलते नही हैं पात,
बुझती नही कंठ की प्यास
खुले में रहने वाले जीवों
का जीवन है,त्राहि त्राहि
पक्षी बिन पानी हो रहे बलिदान,
है मन आकुल सब मनुजन का
कर रहे हर किस्म के परित्राण...
देख रहा ऊपर बैठा वो
हमारे सहने का पैमाना,
हुआ तपिश से हाल बेहाल
ऐ सूरज अपनी गर्मी ले जाना,
ज्यों रात अंधेरी होते ही,
सुबह की बेला आती है,
जलाकर तपाकर इस धरती को
तब बरखा रानी आती है,
सब हो जाएगा तृप्त जल से
जो आज हैं जीव जंतु विकल से,
धरती पर हरियाली छाएगी,
सब गर्मी सब त्राहि को हरने
जब वर्षा ऋतु आएगी,l
जीवन का चक्र समझाने को,
हम सबको सबल बनाने को,
लेती ऋतुएं हमारी परीक्षा
डटे रहो, और जीत जाओ हर पल जीवन का,
यही दे रही प्रकृति सदा शिक्षा..
ठंडी हो जाएगी,यह सारी तपन,
थम जाएगी चहुँ ओर की जलन
आएगी बरखा झनकाती पायल छन छन
सारी असंतुष्टि बन जाएगी,तृप्ति का क्षण
बस इंतज़ार कुछ और समय का,
सिमट जाएगी बारिश की बूंदों में,
ये जेठ की तपन....
सुप्रिया "रानू"
1 comment:
Thanks for writiing
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