Tuesday, May 22, 2018

माँ... तुम और मैं

आज रचना न लिखी है  बस मन किया कह देने को कह दिया ..
यह  कविता आज की नही है आज से 9 साल पहले की है पर आज पोस्ट कर रही हूं इस कविता में मैंने महसूस किया कि व्यथा शब्दों में ढलकर कैसे शक्ति बन जाती है,आज 5 साल हुए अपनी जननी को खोये सो आज का दिन जीवन मे गहरी छाप के साथ अंकित हुआ है,आज जो  यहाँ लिख रही हूं जो मुझे उस विपरीत परिस्थिति में बल देती रही,ये सब मैं हॉस्पिटल के वार्ड के बाहर इंतज़ार करते लिखा करती थी मन में एक बल लिए की यहां मैं लड़ाई लड़ने आयी हूँ, खुद को योद्धा समझती थी,मैं और मेरा अनुज मानों मौत के मुँह से खींचकर माँ को ले जाएंगे स्मरण मात्र से वो दिन झंकृत कर जाते हैं अंतस को....

मेरी माँ : लौह महिला

वो बचपन से कर रही है संघर्ष
न जाने नियति ने कब लिखा है,
उसके जीवन का उत्कर्ष,
आँसू के एक एक घूंट को पीकर
करती है इंतज़ार वो एक लम्हे का हर्ष,
वो बचपन से कर रही संघर्ष..
जिम्मेवारियों से झुका रहा कंधा,
शायद जिम्मेदार सदा रहा अंधा,
अपनी हर खुशी दांव पर लगाकर
अपने गम का हर लम्हा छुपाकर
वो जीती रही विषमताओं का
है लम्हा लम्हा जी जान लगाकर,
मिट्टी के काछी मूरतों को
ढालती गयी पक्के सांचे में,
संस्कार,परंपरा,अनुशासन
शिष्टता एयर सुव्यवहार भरकर
त्याग की हर सीमा पारकर
ज़िन्दगी से न कभी हारकर
वो बचपन से......
सुख के दिनों का न कर इंतज़ार,
दुख के हर लम्हों को बिना इनकार
ईश्वर की हर भेंट को कर सहर्ष स्वीकार,
लब से उफ्फ न आंखों से हुआ कभी आँसू का इज़हार,
ममत्व के ऊंचाईयों के शीर्ष
वो बचपन से कर रही है संघर्ष
खुद का हिस्सा भी बाँटा औरों में,
भेद किया कभी अपने और गैरों में,
हंसकर समर्पण किया सदा,
लेकिन आज
विषमताओं की आँधी कहाँ रुकी,
परीक्षाओं की घड़ी कहाँ झुकी,
नियति ले रही आज अंतिम परीक्षा
मौत अजर ज़िन्दगी की समीक्षा,
कहता है उसका साहस यही,
जो गाथा बचपन से ही रही
हर बार जीतती है,ज़िन्दगी से
मौत से भी जीतेगी भी वही,
कौन से अपने कौन पराये,
आज उसके पास न आये,
कौन सा त्याग कौन समर्पण
कर न सके वो अंश भी अर्पण
उसका गौरव कभी कम न हुआ,
मिट्टी के कच्चे पुतले ही,
उसके सांचे में जो ढले
उसकी छाया में जो पले,
मौत का न करने देंगे स्पर्श
खत्म करेंगे उसका संघर्ष...
दिनांक: 08/10/2007
और सच मे 22 मई 2013 तक न करने दिया स्पर्श मौत का,पर शारीरिक अस्वस्थता कष्ट ऐसी विडम्बनाएं हैं जो विवश कर देती हैं हम यह सोचने पर जब इलाज़ में कुछ न बच जाए तब मृत्यु ही एक मात्र रास्ता दिखता है,जिसके जीवन और लम्बी उम्र की कामना की आज तक लगता है उसे मृत्यु के हाथों सौंप करहम उसके शारीरिक कष्ट से उसे मुक्ति दिला देंगे, जिससे लड़ने को यौद्धा बने हम उसी के आगे घुटने टेक दिए और अभी वर्तमान की स्थिति
जी रहे हैं तुम बिन सब
सबकी सांसे चलती हैं,
बस घर घर नही लगता
और मुझे मायका मायका नही लगता,
मेरी साड़ी पहनने और बिंदी लगाने
के तरीके तुमने न देखा,
नही टोका
बस अब तो तारीफें ही तारीफें हैं,
चाहे मैं गलत भी होऊं तो
तुमसे गलत कह पाने वाला न है कोई,
मेरी अंतहीन बातें न चलती,
कोई विधुर है तो
तुम बिन कोई अनाथ है,
मन मे बस तुम्हारा संस्मरण सबके साथ है,
कहते हैं सब आसपास ही रहती हो,
कभी दिखती न न कभी स्पर्श की अनुभूति हुई,
वो बचपने की  तुम भगवान के पास हो,
वही भरम आज का सच दिखता है,
अंतस में दुख है या सुख अब ये कौन पूछता है...

आज जैव विविधता दिवस है,biodiversity day..
और मेरा जैव अस्तित्व की जड़ को पंचतत्व में विलीन होने का भी दिन....

No comments:

गौरैया

चहकती फुदकती मीठे मिश्री दानों के  सरीखे आवाज़ गूंजता था तुम्हारे आने से बचपन की सुबह का हर साज़ घर के रोशनदान पंखे के ऊपरी हिस्से  कभी दीवार ...