Wednesday, May 9, 2018

मैं और मेरा पौरुष

स्त्रैण मन से एक पुरुष के मन को पढ़ने समझने औऱ अभिव्यक्त करने की एक छोटी कोशिश की है सभी पुरुष पाठकों से विशेष आग्रह है मुझे इतना अवगत जरूर कराएं मैं कहाँ तक पहुंच पाई हूँ कौन सा हिस्सा छुटा है,या कुछ त्रुटि हुई है...


 मैं अधूरा हूँ तुम बिन 
इस स्वीकार्यता में
मेरे पौरुष को ठेस न पहुंचती,
न ही ऐसा है कि मुझपे
यह वाक्य न जंचती,
सच कहूं तो मैं
अपने एहसासों को भाव न दे पाता,
तुम्हारी कमी को
अपने नयनों के कोरों
की नमी में न बदल पाता..
नही भाती मुझे ये खामोशी
बिना किसी टोकाटोकी
के चलनेवाली मेरी मनमानी,
बिना धमकी ताने के रहना,
न ही कोई तानतानी,
न कोई शिकायत
न ही अचानक प्रेम की नदी का मिलना,

अधूरा हूँ मैं भी तुम बिन
बस कह न पाता,
अपूर्ण नर हूँ नारी बिन,
सूने मेरे कंधे बाजू और वक्ष,
कोई साया न है जो ओट ले सके
मैं सम्बल बनकर जिसका गर्वित होउ ,
देख कर तुम्हारे होंठों की हंसी हर्षित होऊं,
घर के कोने रसोई का हर हिस्सा
जो खिला हरियाली भरा गिला गिला से होता था,
देखो कैसे सब मुह मोड़े,
सुर्ख पड़े हैं,
महसूस करता हूँ हर वक़्त,
अधूरा हूँ मैं भी तुम बिन 
बस कह न पाता
अपूर्ण नर हूँ नारी बिन
आइने जो रोज तुम्हे देख कर इठलाते थे,
मेरी छवि भर से मुह मोड़ते हैं,
चिड़ियों का मेला जो तुमसे दाना पानी
की आस में मेला लगाते थे
घर का रास्ता अनो भूल गए हैं,
रसोई के बर्तन भी मुझसे इतराते हैं,
साफ सफाई है,
घर को संभाला है,
रसोई में भी सब कुछ तुम्हारी तरह पका डाला है,
पर जो रस तुम्हारे होने का है,
वो कहीं बाकी है,
मेरे खारेपन को जो मिलके मीठा कर देती हो,
मैं झिझकूँ भी तो तुम थाम  के हाथ
सब उल्टा उल्टा भी सीधा कर देती हो,
तुम पूर्ण करती हो अस्तित्व मेरा
मैं ना भी कहूँ तो समझती हो
हर टेढ़ा मेढा चित्र मेरा,
मेरी नीरसता में भी जो रसों की फुहार लाती हो,मेरे जीवन के पतझड़ में भी जो बहार लाती हो,
कह नही पाता बस इतना समझ लेना
कहूँ न कहूँ तुम बिन रह नही पाता...
अधूरा हूँ तुम बिन,
बस कह न पाता,
अपूर्ण नर हूँ नारी बिन
सुप्रिया"रानू"

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