जिसने सुखी धरती के तृप्त हो जाने को,
महीनों तक मेघों का राह तका,
जो चुपचाप पानी से भरे खेतों के सूखने को,
सूरज से गुहार किया,
जो अकाल में भी ईश्वर
को ही एकटक देखा,
नही तो..
सहने वाला असीमित पीड़ा
यूँही तो नही बोला होगा,
सहने की सीमा पार हुई होगी
तब जाके गाँठ मन की खोला होगा..
महीनों तक मेघों का राह तका,
जो चुपचाप पानी से भरे खेतों के सूखने को,
सूरज से गुहार किया,
जो अकाल में भी ईश्वर
को ही एकटक देखा,
नही तो..
सहने वाला असीमित पीड़ा
यूँही तो नही बोला होगा,
सहने की सीमा पार हुई होगी
तब जाके गाँठ मन की खोला होगा..
जो मेहनत का ही स्वरूप जानते हैं,
अपने कर्मो को ही अपना तकदीर मानते हैं,
खून पसीने से सींचकर उगाई फसलों को
कम कीमतों पर भी देना जानते हैं,
कुछ तो घुटन हुई होगी,
वो यूँही तो नही फंदे पे झूला होगा,
सहने वाला असीमित पीड़ा,
यूँही तो नही बोला होगा...
अपने कर्मो को ही अपना तकदीर मानते हैं,
खून पसीने से सींचकर उगाई फसलों को
कम कीमतों पर भी देना जानते हैं,
कुछ तो घुटन हुई होगी,
वो यूँही तो नही फंदे पे झूला होगा,
सहने वाला असीमित पीड़ा,
यूँही तो नही बोला होगा...
आठ,दस,बारह घंटे के वेतनमान से दूर
जो सिर्फ सूर्योदय और सूर्यास्त
को ही अपने काम का पैमाना मानता है,
इतवार, सोमवार,होली दीवाली,राष्ट्रीय छुट्टी
भला वो क्या जनता है,
जिसने आकांक्षा भी न कि कभी
आधुनिकता की,
जो प्रकृति की गोद मे सिमटना जानता है,
कहीं तो चूक हुई होगी
विद्वानों ने न उसका सही मूल्य मोला होगा
जो सिर्फ सूर्योदय और सूर्यास्त
को ही अपने काम का पैमाना मानता है,
इतवार, सोमवार,होली दीवाली,राष्ट्रीय छुट्टी
भला वो क्या जनता है,
जिसने आकांक्षा भी न कि कभी
आधुनिकता की,
जो प्रकृति की गोद मे सिमटना जानता है,
कहीं तो चूक हुई होगी
विद्वानों ने न उसका सही मूल्य मोला होगा
सहने वाला असीमित पीड़ा यूँही तो नही बोला होगा...
जो नही जानता सरकारों को,
क्षण क्षण बदलनेवाले व्यवहारों को,
धरती से अन्न उगाना ही जिसका जीवन है,
खुद भूखे रह कर भी सबका पेट भर दूं ऐसा उसका मन है,
अक्षम समझा होगा अपने पखेरूओं का
पेट भर पाने में,
क्षण क्षण बदलनेवाले व्यवहारों को,
धरती से अन्न उगाना ही जिसका जीवन है,
खुद भूखे रह कर भी सबका पेट भर दूं ऐसा उसका मन है,
अक्षम समझा होगा अपने पखेरूओं का
पेट भर पाने में,
पोंछ के आँसू आंखों से खूंटे से उन्हें खोल होगा,
सहने वाला असीमित पीड़ा यूँही तो नही बोला होगा...
तुम रखो अपनी दिल्ली साफ,
गांव का धूल न वो रखने आये हैं,
कुछ असहनीय पीड़ाएँ हैं उनकी
कह लेने दो जो वो कहने आये हैं,
करना न करना किसके बस में है,
सालों से सहते हैं,वो दुनिया मे सहने आये हैं,
सीधे सच्चे इंसानो पर इतनी बेरहमी
ईमान नही क्या डोला होगा
गांव का धूल न वो रखने आये हैं,
कुछ असहनीय पीड़ाएँ हैं उनकी
कह लेने दो जो वो कहने आये हैं,
करना न करना किसके बस में है,
सालों से सहते हैं,वो दुनिया मे सहने आये हैं,
सीधे सच्चे इंसानो पर इतनी बेरहमी
ईमान नही क्या डोला होगा
सहने वाल असीमित पीड़ा यूँही तो नही बोला होगा
सुप्रिया 'रानू'
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