मैं माँ बनना चाहती हूँ
क्या नया है इसमें
हर स्त्री बनती है,
सबकी क्षमता है,
पर,
मैं थोड़ा स्त्रैण पुरुष
और थोड़ी पौरुषेण स्त्री जनना चाहती हूँ,
मैं माँ बनना चाहती हूँ...
मैं प्रकृति नही बदलना चाहती,
अपितु इसके साथ चलना चाहती
सामाजिक,पारिवारिक जीवन
के दिखावटी सामंजस्यों को
सत्य में पाटना चाहती हूँ,
अर्धनारिस्वर का स्वरूप
यथार्थ में बाँटना चाहती हूँ...
पुरुष जो स्त्री को समझे मातृ स्वरूप,
पुरुष जो समजिकताओं में झोंक कर
न करे मटियामेट उसके अस्तित्व का रूप
पुरुष जिसका गौरव हो रक्षित करना स्त्री का स्वाभिमान
पुरुष जिसके लिए घरेलू हिंसा हो उसके अस्तित्व का अपमान,
पुरुष जो संयमित पर्वत से खड़ा हो,
हो भिज्ञ अपनी सीमाओं से अपने वचन पे अड़ा हो,
होकर निहत्था जिसके सामने स्त्री के अपमान से जुड़ा
हर सामाजिक नपुसंकता पड़ा हो..
शायद हो असंभव पर जनकर सामान्य जन
यथार्थ में कृतियों को अमर्त्य रूप में पलना चाहती हूं,
मैं थोड़ा स्त्रैण पुरुष
और थोड़ी पौरुषेण स्त्री जनना चाहती हूँ,
मैं माँ बनना चाहती हूँ..
स्त्री जो स्व के भाव में रहना जाने,
अपने आंनद में बहना जाने,
जो प्रेम में डूबकर भी
खुद के पैरों पे खड़ी हो,
वो नही जो प्रेम देकर असीमित भी,
पैरों तले पड़ी हो,
जो अपना सही मूल्य जाने,
जो स्व को पूर्णतः पहचाने,
जो संयमित हो
जो छल प्रपंच और स्त्रियों के लिए ही
वैमनस्य से विरक्त हो,
जो खरा,नीरा सत्य,सा
सफेद , उज्जवल निर्मल प्रेम
करने की आसक्त हो...
स्त्री जो विषमताओं में काली बनने
का अदम्य साहस रखती हो,
स्त्री जो दम घुटने तक न नियमो पर चलती हो,
स्त्री जो प्रेम में उड़ती हो..
है कल्पना कवि मन की
जानती हूं असम्भवों को संभव करना चाहती हूँ,
मैं थोड़ा स्त्रैण पुरुष
और थोड़ी पौरुषेण स्त्री जनना चाहती हूँ
मैं माँ बनना चाहती हूँ...
सुप्रिया "रानू"
4 comments:
बहुत ही लाजवाब रचना...
वाह!!!
सुन्दर सृजन
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
सुंदर 👏 👏
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