मैं रिश्तों के बंधन में हूँ,
तब तक जब तक
वो प्रेम से बंधे हैं...
मैं उन्मुक्त हो जाती हूँ
स्वभावतः उस हर बंधन से
जहां अहम, जहां ईर्ष्या,
जहां अपमान,जहाँ तिरस्कार,
और जहां समझ का अभाव हो...
चेहरे के पीछे छिपे एक
चेहरे में अनगिनत दुराव हो...
मैं रिश्तों के बंधन में हूँ,
तब तक ....
मैं धुल डालती हूँ,
जबरदस्ती मनमर्जी करने वाले
सारे दाग अपने आत्मस्वाभिमान से,
मैं भूला देती हूं वो सारे घाव
जो किसीने अपनी संस्कारहीनता में दिए हैं,
क्योंकि घाव जो मन मे बसे होते हैं
रिसते रहते हैं,और टीसते रहते हैं
अंदर ही अंदर..
मैं रिश्तों के बंधन में हूँ,
तब तक...
मैं समर्पित हूँ उस हर जगह
जहां मेरे समर्पण को समर्पण समझा जाये,
और स्वार्थी हो जाती हूँ उस हर पल में
जहां अपनेपन की चाशनी में
स्वार्थ डुबोया जाए...
मैं असीम अनंत प्रेम का प्रकाश नही बनना चाहती
जो खुद रौंदे जाने के बाद भी पनपती रहे.
मैं स्वक्छ निर्मल निर्बाध प्रेम का दरिया बनना चाहती हूँ,
जहां पवित्र भावनाओं का प्रवेश ही वांछनीय हो..
मैं भगवान नही बस एक निर्मल इंसान बनने चाहती हूँ,
प्रेम के बदले प्रेम और सम्मान से सम्मान देना चाहती हूं
मैं उड़ जाती हूँ आज़ाद परिंदे की तरह
जिस रिश्ते में घुटन होती है,
और थम जाती हूँ उस रिश्ते में
जिसमे शुद्ध प्रेम की वजन होती है...
मैं रिश्तों के बंधन में हूँ...
तब तक....
सुप्रिया"रानू"
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