मैं शिशिर की सर्द रातों सी,
तुम ओश को पिघलाते नर्म
गुनगुनी धूप सरीखे...
मैं शिशिर में फैले
घने गहरे कोहरे की तरह,
तुम खिलते सरसो के टेसू
मैं शिशिर की पाले और ओले,
तुम आँख मिचते खिलते
छुपते सूरज से...
मैं शिशिर की ठंडी सर्द
हवाओं सी
तुम गर्म शाल की गर्मी से...
मैं तिल और मूंगफलियों से,
तुम चाशनी सरीखे
मेरी मिठाश समेटने वाले,
मैं शिशिर की सर्द रातों सी..
तुम ओश को पिघलाते
नर्म गुनगुनी धूप सरीखे..
मैं उन्मुक्त आकाश सी
तुम सीमाओं की प्राचीर बनो,
मैं जहाँ भी थक जाऊँ राहों में,
तुम मेरे मन का धीर बनो,
मैं क्षण क्षण में खो भी जाऊँ,
तो तुम साथ अपना चिर रखो,
मैं सज्जा तो तुम
उस ओर खिलने वाले रूप सरीखे,
मैं शिशिर की सर्द रातों सी
तुम खिलते नर्म
गुनगुनी धूप सरीखे...
सुप्रिया "रानू"
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