जीवन मे पग पग पर,
तुमने नित नव नव रूप बनाये,
अपनी बुद्धि और आत्मबल से,
ओ नार !
तुमने जीवन को कई नृत्य कराए।
जब आयी विषमताएं जीवन मे,
तो तुम सीता सी संग राम के वन में गयी,
और आत्मसम्मान की रक्षा में,
वही स्वरूप धरा में समाए
ओ नार !
तुमने जीवन को कई नृत्य कराए।
पति प्रेम में अपना जीवन भुल,
कभी सती होने को जीवित ही,
तन मन मे अग्नि लपटाए,
तो कभी प्रेम वश सावित्री बन
जा यम से प्राण पति के छीन लाये,
ओ नार !
तुमने जीवम से कई नृत्य कराए।
तुम दमित रही,कुचलित रही,
अब भी मर्यादाओं से छलित रही,
न जाने कितनी बार समाज ने
तुम्हारे फैले पंखों को दरवाजों के अंदर चुनवाये,
फिर भी तुम काली बनी
दुर्गा कहलाये
ओ नार !
तुमने जीवन से कई नृत्य कराए।
तोतली आवाज़ में
पिता के मन का सुकुन बन जाती हो,
राखियों में लिपटकर
भाई का हर साहस बन जाती हो,
एक अंगुल सिंदूर से
प्राण पति का बचाती हो,
दुग्ध का अमृत पान कर के
पुत्र को सबल बनाती हो,
बहु एयर बेटी स्वरूप
घर घाट में तुलसी बन जाती हो
जीवन के हर रण में
आपमे अदम्य साहस से जीत के बिगुल बजाए,
ओ नार !
तुमने जीवन को कई नृत्य कराए।
रात की कालिमा यूं आंखों में सजाये,
सुबहवकी सूर्य सी लालिमा ललाट पर लगाये,
हाथों में ऊर्जा की मेहंदी लगाए
और गेशुओं में महकते खिलते
बगीचे सजाये,
अद्भुत सुंदरता का रूप तुममे समाए,
ओ नार !
तुमने जीवन को कई नृत्य कराए।
सुप्रिया "रानू"
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