Thursday, June 27, 2019

आयी बरखा सब तृप्त करने को

तपती जलती धरा को जल
से शीतल करने को,
सुखी पेड़ों की काया को
अमृत जीवन देने को,
आकुलित वन्य जीव
और मानव मन को
संतृप्त करने को ,
आयी बरखा एक एक
कोने को तृप्त करने को...

बेफसल धरा में आई जो दरारें हैं
उनको भरने को,
सूखते इन वृक्षों की शाख,
पत्तियों को हरा कर ,
नई कोंपलों के आगमन को,
धरा के अन्तस् में घटते जलस्तर
को संतुलित करने को,
तनमन हर्षित करने को
आयी बरखा एक एक कोने को तृप्त करने को...

धरा के भीतर छुपे अकुलाए
जीव जंतुओं के ऊपर आने को,
खोल के पंख सारे मयूर के नाच जाने को,
हरी अम्बियाको जल से धुलकर पक जाने को
भरकर खेतों में जल का स्तर
हरियाली धान के लग जाने को
प्रेम अम्बर का बरखा की बूंदों
के रूप में धरा को अर्पित करने को,
आयी बरखा एक एक कोने को तृप्त करने को...

फीकी फीकी रसोई में
भजिया और समोसे तलने को,
रिमझिम बूंदो में भीगकर
अन्तस् के सारे दुख घुलने को,
सोंधी सोंधी मिट्टी की
खुशब तन मन मे बसने को,
एक एक जीव के मन को संतृप्त करने को
आयी बरखा एक एक कोने को तृप्त करने को..

सुप्रिया "रानू"

3 comments:

Sweta sinha said...

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

शुभा said...

वाह!!बहुत खूब!

Sudha Devrani said...

बहुत ही सुन्दर...
वाह!!!

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