या इंसानो की उपज
समझ पाना परे है समझ से,
जीवन कब मृत्यु को स्पर्श कर ले,
अंदाज़ा लगाना परे है तज़ुर्बे से,
न जाने किसने क्या छुआ,
और उस एक छुवन से किसे क्या हुआ,
कौन लड़ पाता है,
कौन थक के बैठ जाता है,
क्या यह महामारी उन्हें भी होगी,
जिनके पास न तो तन ढकने को कुछ पर्याप्त है,
न पेट भरने की औकात है,
क्या यह सड़क पर आवारा घूमते उन
पशुओं को भी छुएगा,
जो आश्रित हैं उन इंसानो
पर पेट भरने को,
जिनमे आज राशन और सब्जी
बटोर लेने की जमात है,
क्या यह महामारी सड़क किनारे
कचरे बीनते उन बच्चों को भी छुएगी
जिनके पास महीनो की मैली
एक कमीज और न जाने किसकी उतरी फ्रॉक है,
क्या यह महामारी उन्हें भी न छोड़ेगी
जो देह से ही पेट भरते हैं और इस छुवाछुत
में उनके रोजगार की लगी दांव है,
क्या यह महामारी उन्हें भी छूएगी,
जो एक दिन खाने भर ही कमाते थे,
ज़िन्दगी होगी तब तो मौत आएगी
जिनकी ज़िन्दगी ही मौत सरीखी
हो गयी है उन्हें क्या यह
मौत वाली महामारी डराएगी,
प्रकृति तो इतनी क्रूर न होगी,
जो ऐसा मौत का सामान बनाएगी,
यह जरूर इंसानो के दिमाग का ही फितूर है
जो इस हद तक मौत का व्यापार कराएगी ।।
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